क़रिया-ए-इंतिज़ार में उम्र गँवा के आए हैं
ख़ाक-ब-सर इस दश्त में ख़ाक उड़ा के आए हैं
याद है तेग़-ए-बे-रुख़ी याद है नावक-ए-सितम
बज़्म से तेरी अहल-ए-दिल रंज उठा के आए हैं
जुर्म थी सैर-ए-गुलिस्ताँ जुर्म था जलवा-हा-ए-गुल
जब्र के बा-वजूद हम गश्त लगा के आए हैं
पहले भी सर बहुत कटे पहले भी ख़ून बहुत बहा
अब के मगर अज़ाब के दौर बला के आए हैं
रात का कोई पहर है तेज़ हवा का कहर है
ख़ौफ-ज़दा दिलों में सब हर्फ़ दुआ के आए हैं
Sunday, November 24, 2013
क़रिया-ए-इंतिज़ार में उम्र गँवा के आए हैं / अहमद अज़ीम
Subscribe to:
Post Comments
(
Atom
)


0 comments :
Post a Comment