जो पहुँचे कभी-कभार
और जिन्होंने मदमस्त फागुन या करवट बदलते
कार्तिक में गुज़ारीं ख़ूबसूरत शामें
और रूई से मुलायम रातों के नशीले
आगोश में अलमस्त रहे छिन्दवाड़ा में
कहते- बड़ा अच्छा शहर है
ऐश्वर्या की आँखों की तरह शांत
अहा! ताज़ी गोभी सीताफल सिंघाड़े और आलू का स्वाद
अभी तक याद है
और वहाँ के सरल सीधे लोग
जो बतियाने लग जाएँ तो
घंटों रहें साथ और छोड़ने आएँ बस स्टेंड तक
वही छिन्दवाड़ा जहाँ बरारीपुरा से निकलकर कवि श्रेष्ठ विष्णु खरे
पहुँचे सबकी आवाज़ के परदे में
जहाँ एक मुहल्ले में सिसकियाँ उठतीं तो
पता लग जाता सारे शहर को
जहाँ अभागे प्रेमी झुंझलाते पैर पटकते कहते
नहीं जगह कोई ऐसी
जहाँ मिल न जाएँ परिचित दो चार
Saturday, November 2, 2013
छिन्दवाड़ा-1 / अनिल करमेले
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