Pages

Saturday, November 30, 2013

हमेशा दिल में रहता है कभी गोया नहीं जाता / आलम खुर्शीद

हमेशा दिल में रहता है, कभी गोया नहीं जाता
जिसे पाया नहीं जाता, उसे खोया नहीं जाता
 
कुछ ऐसे ज़ख्म हैं जिनको सभी शादाब रखते हैं
कुछ ऐसे दाग़ हैं जिनको कभी धोया नहीं जाता
 
बहुत हँसने कि आदत का यही अंजाम होता है
कि हम रोना भी चाहें तो कभी रोया नहीं जाता
 
अजब सी गूँज उठती है दरो-दीवार से हरदम
ये उजड़े ख़्वाब का घर है यहाँ सोया नहीं जाता
 
ज़रा सोचो ये दुनिया किस क़दर बेरंग हो जाती
अगर आँखों में कोई ख़्वाब ही बोया नहीं जाता
 
न जाने अब मुहब्बत पर मुसीबत क्या पड़ी आलम
कि अहले दिल से दिल का बोझ भी ढोया नहीं जाता

आलम खुर्शीद

केन पर भिनसार / अग्निशेखर

बीच पुल पर खड़ा मैं अवाक‌
ओस भीगी नीरवता में
बांदा के आकाश का चन्द्रमा
हो रहा विदा
केन तट पर छोड़े जा रहा

पाँव के निशान

बड़ी-बड़ी पलकों वाली उसकी प्रेयसी
बेख़बर मेरी और मेरे कविमित्र की मौज़ूदगी से
निहारती एकटक वो मुक्तकेशी
जन्मों से बँधी
अभी मांग में उतरेगा केसर
और संसार बदल जाएगा

साँस रोके खड़ा मैं पुल पर
सुदूर बादल के घोंसलों में कहीं से
बोल पड़ता है कोई जलपाँखी
सचेत-सा करता केन को

मेरे बारे में

ओ, भोले जलपाँखी
मेरी भी केन थी एक
राग-भैरवी-सी
सात-सात पुलों के नीचे से हो बहती
मैं चलता तटों पर साथ उसके
खेलता
गाता
इठलाता
कभी उतरता तहों में
तैरता आर-पार...

बरसों बाद जलावतनी में
यह विस्मय...
निश्शब्दता...

और क्षितिज पर सरकती
वो श्यामल लिहाफ़
केन का अलसाया रूप
मुखर चाहना फिर से प्रिय की

मैं लौटता हूँ वापस
उदास और अभिभूत
चुप है जलपाँखी भी

अग्निशेखर

खाय गईँ खसम भसम को रमाय लाईँ / अज्ञात कवि (रीतिकाल)

खाय गईँ खसम भसम को रमाय लाईँ ,
सँपति नसाय दुहूँ कुल मेँ बिघन की ।
छाई भई साधुन की पाँति को पवित्र कीन्होँ ,
माईजी कहायकै लुगाई बनी जन की ।
कासमीरी छोहरे दिखाय परैँ कहूँ तो ,
न पांय धरैँ भूमै न हवास रहैँ तनकी ।
पाय पाय पूतन बहाय दीन्हीँ सोतन मेँ ,
हाय गति कहाँ लौँ बखानौँ भगतिन की ।


रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

अज्ञात कवि (रीतिकाल)

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं / फ़राज़

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं

सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से
सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं

सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं

सुना है उसको भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं

सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं

सुना है हश्र हैं उसकी ग़ज़ाल सी आँखें
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं

सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं

सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उसकी
सुना है शाम को साये गुज़र के देखते हैं

सुना है उसकी सियाह चश्मगी क़यामत है
सो उसको सुरमाफ़रोश आह भर के देखते हैं

सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पर इल्ज़ाम धर के देखते हैं

सुना है आईना तमसाल है जबीं उसकी
जो सादा दिल हैं उसे बन सँवर के देखते हैं

सुना है जब से हमाइल हैं उसकी गर्दन में
मिज़ाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं

सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में
पलंग ज़ाविए उसकी कमर के देखते हैं

सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं
के फूल अपनी क़बायेँ कतर के देखते हैं

वो सर-ओ-कद है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं
के उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं

बस एक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का
सो रहर्वान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं

सुना है उसके शबिस्तान से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीन उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं

रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं

किसे नसीब के बे-पैरहन उसे देखे
कभी-कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं

कहानियाँ हीं सही सब मुबालग़े ही सही
अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं

अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जायेँ
फ़राज़ आओ सितारे सफ़र के देखते हैं

अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं
फ़राज़ अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं

जुदाइयां तो मुक़द्दर हैं फिर भी जाने सफ़र
कुछ और दूर ज़रा साथ चलके देखते हैं

रह-ए-वफ़ा में हरीफ़-ए-खुराम कोई तो हो
सो अपने आप से आगे निकल के देखते हैं

तू सामने है तो फिर क्यों यकीं नहीं आता
यह बार बार जो आँखों को मल के देखते हैं

ये कौन लोग हैं मौजूद तेरी महफिल में
जो लालचों से तुझे, मुझे जल के देखते हैं

यह कुर्ब क्या है कि यकजाँ हुए न दूर रहे
हज़ार इक ही कालिब में ढल के देखते हैं

न तुझको मात हुई न मुझको मात हुई
सो अबके दोनों ही चालें बदल के देखते हैं

यह कौन है सर-ए-साहिल कि डूबने वाले
समन्दरों की तहों से उछल के देखते हैं

अभी तलक तो न कुंदन हुए न राख हुए
हम अपनी आग में हर रोज़ जल के देखते हैं

बहुत दिनों से नहीं है कुछ उसकी ख़ैर ख़बर
चलो फ़राज़ को ऐ यार चल के देखते हैं

अहमद फ़राज़

खुश्बू की तरह साथ लगा ले गई हमको / इरफ़ान सिद्दीकी

खुश्बू की तरह साथ लगा ले गई हमको
कूचे से तेरे बादे-सबा ले गई हमको

पत्थर थे कि गौहर थे अब इस बात का क्या ज़िक्र
इक मौज बहरहाल बहा ले गई हमको

फिर छोड़ दिया रेगे-सरे-राह समझ कर
कुछ दूर तो मौसम की हवा ले गई हमको

तुम कैसे गिरे आंधी में छतनार दरख्तो!
हम लोग तो पत्ते थे उड़ा ले गई हमको

हम कौन शनावर थे कि यूँ पार उतरते
सूखे हुए होंटों की दुआ ले गई हमको

इस शहर में ग़ारत-गरे-ईमाँ तो बहुत थे
कुछ घर की शराफ़त ही बचा ले गई हमको

इरफ़ान सिद्दीकी

गीत – 2 / उदय भान मिश्र

हंस लो कुछ क्षण और धरा पर, नभ के चांद सितारो!!
आग लिये हहराता पथ पर सूरज आता होगा।

कब तक ढांक सकेगी भू को, निशि तम की धारा में?
कब तक मौन रहेगा पंकज, कलियों की कारा में?
कब तक धरती की सुहाग पर, तम में छिपा रहेगा?
कब तक पत्तों के झुरमुट में-पंछी पड़ा रहेगा?
कब तक होगी मनचाही यह, कब तक धरा सहेगी?
कब तक भू पर अंधकार की-चादर तनी रहेगी?

कर लो अपने मन की कुछ क्षण और-गगन के तारो-
दीप लिये हहराता नभ में सूरज आता होगा।

अब तो जीवन और मरण का भीषण झगड़ा होगा।
और तुम्हारी मनचाही पर बल का पहरा होगा।
कुसुमों से खेलेगी हंस कर रोने वाली धरती।
हरी लताओं में झूमेगी, बन मतवाली धरती।
बंद रहेंगे गीत रात के-सरस प्रभाती होगी।
हारेगी जब रात, और जब जीत दिवस की होगी।

खोलो घर के द्वार, किरण आयेगी-भू के लोगों!!
थाल लिये कर में, कल सूरज तिलक लगाता होगा।

उदय भान मिश्र

अब दो आलम से सदा-ए-साज़ आती है मुझे / अब्दुल हमीद 'अदम'

अब दो आलम से सदा-ए-साज़ आती है मुझे
दिल की आहट से तेरी आवाज़ आती है मुझे

या समात का भरम है या किसी नग़्में की गूँज
एक पहचानी हुई आवाज़ आती है मुझे

किसने खोला है हवा में गेसूओं को नाज़ से
नर्मरौ बरसात की आवाज़ आती है मुझे

उस की नाज़ुक उँगलियों को देख कर अक्सर 'अदम'
एक हल्की सी सदा-ए-साज़ आती है मुझे

अब्दुल हमीद 'अदम'

इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल पड़े / कैफ़ी आज़मी

 
इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल पड़े
हँसने से हो सुकून ना रोने से कल पड़े

जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी-पी के अश्क-ए-ग़म
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े

एक तुम के तुम को फ़िक्र-ए-नशेब-ओ-फ़राज़ है
एक हम के चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े

मुद्दत के बाद उस ने जो की लुत्फ़ की निगाह
जी ख़ुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े

साक़ी सभी को है ग़म-ए-तश्नालबी मगर
मय है उसी के नाम पे जिस के उबल पड़े

कैफ़ी आज़मी

गर्दिश का इक लम्हा यूँ बेबाक हुआ / अम्बर बहराईची

गर्दिश का इक लम्हा यूँ बेबाक हुआ
सोने चाँदी का हर मंज़र ख़ाक हुआ

नहर किनारे एक समुंदर प्यासा है
ढलते हुए सूरज का सीना चाक हुआ

इक शफ़्फ़ाफ़ तबीअत वाला सहराई
शहर में रह कर किस दर्जा चालाक हुआ

शब उजली दस्तारें क्या सर-गर्म हुईं
भोर समय सारा मंज़र नमनाक हुआ

वो तो उजालों जैसा था उस की ख़ातिर
आने वाला हर लम्हा सफ़्फ़ाक हुआ

ख़ाल-ओ-ख़द मंज़र पैकर और गुल बूटे
ख़ूब हुए मेरे हाथों में चाक हुआ

इक तालाब की लहरों से लड़ते लड़ते
वो भी काले दरिया का पैराक हुआ

मौसम ने करवट ली क्या आँधी आई
अब के तो कोहसार ख़स-ओ-ख़ाशाक हुआ

बातिन की सारी लहरें थीं जोबन पर
उस के आरिज़ का तिल भी बेबाक हुआ

चंद सुहाने मंज़र कुछ कड़वी यादें
आख़िर ‘अम्बर’ का भी क़िस्सा पाक हुआ

अम्बर बहराईची

अकाल के बाद / उमाशंकर तिवारी

माँ, नहीं बादल बुलाती
खुली छत से
कुछ न सूरज से, न कुछ
माँगे शरत से

भूल बैठी लोरियाँ,
किस्से कहानी
बाढ़ की गंगा हुई
दो बूंद पानी
रूठकर बैठी हुई है
देवव्रत से

क्या न करवाचौथ के
मेले लेगेंगे?
चूड़ियों के हाट घाटों पर
सजेंगे?
क्या न अब मोती गिरेगा
टूट नथ से?

बैठते हल, कोख सूनी
होंठ नीले
किस तरह हों बेटियों के
हाथ पीले?
चलें हम भी
बात कर आएँ

उमाशंकर तिवारी

मिस्टर के की दुनिया: पेड़ और बम-७ / गिरिराज किराडू

घड़ियों से प्रेम मत करो
ट्रेनों से उससे भी कम
और भाषा से सबसे कम
जिस भाषा में तुम रोते हो वही किसी का अपमान करने की सबसे विकसित तकनीक है

तुम भाषा की शर्म में रहते हो
और वे चीख रहे हैं गर्व में
तुम्हारे पास अगर कुछ है तो अपने को बम में बदल देने का विकल्प
और तुम अभी भी सोचते हो बम धड़कता नहीं है
तुम अपने सौ एक सौ अस्सी के रक्तचाप को सम्भाल के रक्खो

एक हिंसक मौत की कामना हर अहिंसक की मजबूरी है
इसीलिये मजबूरी का नाम महात्मा गांधी है

घड़ी देखो और अपने रक्तचाप में डूब मरो

गिरीराज किराडू

जस्त भरता हुआ दुनिया के दहाने की तरफ़ / अंजुम सलीमी

जस्त भरता हुआ दुनिया के दहाने की तरफ़
जा निकलता हूँ किसी और ज़माने की तरफ़

आँख बे-दार हुई कैसी ये पेशानी पर
कैसा दरवाज़ा खुला आईना-ख़ाने की तरफ़

ख़ुद ही अंजाम निकल आएगा इस वाक़िए से
एक किरदार रवाना है फ़साने की तरफ़

हल निकलता है यही रिश्तों की मिस्मारी का
लोग आ जाते हैं दीवार उठाने की तरफ़

दरमियाँ तेज़ हवा भी है ज़माना भी है
तीर तो छोड़ दिया मैं ने निशाने की तरफ़

एक बिछड़ी हुई आवाज़ बुलाती है मुझे
वक़्त के पार से गुम-गश्ता ठिकाने की तरफ़

अंजुम सलीमी

वास्तविकता / अमित

ड्राइंग रूम में अपना एक चित्र लगाया है
जो मुझे आकर्षक दिखाता है
पर मेरे जैसा नहीं दिखता
एक तख्ती दरवाजे पर
उपाधियां दर्शाती है, मेरी
जिन्हें मैं जानता हूँ कि कागजी हैं
और ओढे रहता हूँ एक गंभीरता
कि लोग बहुत नजदीक न आ जाँय
जान लें मेरी वास्तविकता
लेकिन कभी-कभी सोचता हूँ
कि देंखूं
इन सबके बिना
मैं कैसा लगता हूँ|

अमिताभ त्रिपाठी ‘अमित’

सफ़र हो शाह का या क़ाफ़िला फ़क़ीरों का / अतुल अजनबी

सफ़र हो शाह का या क़ाफ़िला फ़क़ीरों का
शजर मिज़ाज समझते हैं राहगीरों का

किसी दरख़्त से सीखो सलीक़ा जीने का
जो धूप - छाँव से रिश्ता बनाये रहता है

ये रहबर आज भी कितने पुराने लगते हैं
की पेड़ दूर से रस्ता दिखाने लगते हैं

अजब ख़ुलूस अजब सादगी से करता है
दरख़्त नेकी बड़ी ख़ामुशी से करता है

पत्तों को छोड़ देता है अक्सर खिज़ां के वक़्त
खुदगर्ज़ी ही कुछ ऐसी यहाँ हर शजर में है

अतुल अजनबी

क्यों / कीर्ति चौधरी

ऐसा क्यों होता है?
ऐसा क्यों होता है?

उमर बीत जाती है करते खोज,
मीत मन का मिलता ही नहीं,
एक परस के बिना,
हृदय का कुसुम
पार कर आता कितनी ऋतुएँ, खिलता नहीं।
उलझा जीवन सुलझाने के लिए
अनेक गाँठें खुलतीं;
वह कसती ही जाती जिसमें छोर फँसे हैं।
ऊपर से हँसने वाला मन अन्दर-ही-अन्दर रोता है,
ऐसा क्यों होता है?
ऐसा क्यों होता है?

छोटी-सी आकांक्षा मन में ही रह जाती,
बड़े-बड़े सपने पूरे हो जाते, सहसा।
अन्दर तक का भेद सहज पा जाने वाली
दृष्टि,
देख न पाती
जीवन की संचित अभिलाषा,
साथ जोड़ता कितने मन
पर एकाकीपन बढ़ता जाता,
बाँट न पाता कोई
ऐसे सूनेपन को
हो कितना ही गहरा नाता,
भरी-पूरी दुनिया में भी मन ख़ुद अपना बोझा ढोता है।
ऐसा क्यों होता है?
ऐसा क्यों होता है?

कब तक यह अनहोनी घटती ही जाएगी?
कब हाथों को हाथ मिलेंगे
सुदृढ़ प्रेममय?
कब नयनों की भाषा
नयन समझ पाएंगे?
कब सच्चाई का पथ
काँटों भरा न होगा?
क्यों पाने की अभिलाषा में मन हरदम ही कुछ खोता है?
ऐसा क्यों होता है?
ऐसा क्यों होता है?

कीर्ति चौधरी

मैं घायल शिकारी हूँ / अनुज लुगुन


मैं घायल शिकारी हूँ
मेरे साथी मारे जा चुके हैं
हमने छापामारी की थी
जब हमारी फ़सलों पर जानवरों ने धावा बोला था

...हमने कार्रवाई की उनके ख़िलाफ़
जब उन्होंने मानने से इनकार कर दिया कि
फ़सल हमारी है और हमने ही उसे जोत–कोड कर उपजाया है
हमने उन्हें बताया कि
कैसे मुश्किल होता है बंजर ज़मीन को उपजाऊ बनाना
किसी बीज को अंकुरित करने मे कितना ख़ून जलता है
हमने हाथ जोड़े, गुहार की
लेकिन वे अपनी ज़िद पर अड़े रहे कि
फ़सल उनकी है,
फ़सल जिस ज़मीन पर खड़ी है वह उनकी है
और हमें उनकी दया पर रहना चाहिए

हमें गुरिल्ले और छापामार तरीके ख़ूब आते हैं
लेकिन हमने पहले गीत गाए
माँदर और नगाड़े बजाते हुए उन्हें बताया कि देखो
फ़सल की जड़ें हमारी रगों को पहचानती हैं ,
फिर हमने सिंगबोंगा से कहा कि
वह उनकी मति शुद्ध कर दे
उन्हें बताए कि फ़सलें ख़ून से सिंचित हैं ,

और जब हम उनकी सबसे बडी अदालत में पहुँचे
तब तक हमारी फ़सलें रौंदी जा चुकी थीं
मेरा बेटा जिसका ब्याह पिछली ही पूरणिमा को हुआ था
वह अपने साथियों के साथ सेंदेरा के लिए निकल पडा

यह टूट्ता हुआ समय है
पुरखों की आत्माएँ ,देवताओं की शक्ति छीन होती जा रही हैं
हमारी सिद्धियाँ समाप्त हो रही हैं
सेंदेरा से पहले हमने
शिकारी देवता का आह्वान किया था लेकिन
हम पर काली छायाएँ हावी रहीं
हमारे साथी शहीद होते गए

मैं यहाँ चट्टान के एक टीले पर बैठा
फ़सलों को देख रहा हूँ
फ़सलें रौन्दी जा चुकी हैं
मेरे बदन से लहू रिस रहा है
रात होने को है और
मेरे बच्चे, मेरी औरत
घर पर मेरा इंतज़ार कर रही है
मैं अपने शहीद साथियों को देखता हूँ
अपने भूखे बच्चे और औरतों को देखता हूँ
पर मुझे अफ़सोस नहीं होता
मुझे विश्वास है कि
वे भी मेरी खोज में इस टीले तक एक दिन ज़रूर पहुँचेंगे

मैं उस फ़सल का सम्मान लौटाना चाहता हूँ
जिसकी जड़ों में हमारी जड़ें हैं
उसकी टहनियों में लोटते पंछियों को घोंसला लौटाना चाहता हूँ
जिनके तिंनकों में हमारा घर है
उस धरती के लिये बलिदान चाहता हूँ
जिसने अपनी देह पर पेड़ों के उगने पर कभी आपत्ति नहीं की
नदियों को कभी दुखी नहीं किया
और जिसने हमें सिखाया कि
गीत चाहे पंछियों के हों या जंगल के
किसी के दुश्मन नहीं होते

मैं एक बूढ़ा शिकारी
घायल और आहत
लेकिन हौसला मेरी मुट्ठियों में है और
उम्मीद हर हमले में
मैं एक आख़िरी गीत अपनी धरती के लिए गाना चाहता हूँ ..


18/11/12

अनुज लुगुन

जनता का आदमी / आलोक धन्वा


बर्फ़ काटने वाली मशीन से आदमी काटने वाली मशीन तक
कौंधती हुई अमानवीय चमक के विरूद्ध
जलतें हुए गाँवों के बीच से गुज़रती है मेरी कविता;
तेज़ आग और नुकीली चीख़ों के साथ
जली हुई औरत के पास
सबसे पहले पहुँचती है मेरी कविता;
जबकिं ऐसा करते हुए मेरी कविता जगह-जगह से जल जाती है
और वे आज भी कविता का इस्तेमाल मुर्दागाड़ी की तरह कर रहे हैं
शब्दों के फेफड़ों में नये मुहावरों का ऑक्सी जन भर रहे हैं,
लेकिन जो कर्फ़्यू के भीतर पैदा हुआ,
जिसकी साँस लू की तरह गर्म है
उस नौजवान खान मज़दूर के मन में
एक बिल्कुल नयी बंदूक़ की तरह याद आती है मेरी कविता।
जब कविता के वर्जित प्रदेश में
मैं एकबारगी कई करोड़ आदमियों के साथ घुसा
तो उन तमाम कवियों को
मेरा आना एक अश्लील उत्पात-सा लगा
जो केवल अपनी सुविधाके लिए
अफ़ीम के पानी में अगले रविवार को चुरा लेना चाहते थे
अब मेरी कविता एक ली जा रही जान की तरह बुलाती है,
भाषा और लय के बिना, केवल अर्थ में-
उस गर्भवती औरत के साथ
जिसकी नाभि में सिर्फ़ इसलिए गोली मार दी गयी
कि कहीं एक ईमानदार आदमी पैदा न हो जाय।

सड़े हुए चूहों को निगलते-निगलते
जिनके कंठ में अटक गया है समय
जिनकी आँखों में अकड़ गये हैं मरी हुई याद के चकत्ते
वे सदा के लिए जंगलों में बस गये हैं -
आदमी से बचकर
क्यों कि उनकी जाँघ की सबसे पतली नस में
शब्द शुरू होकर
जाँघ की सबसे मोटी नस में शब्द समाप्त हो जाते हैं
भाषा की ताज़गी से वे अपनी नीयत को ढँक रहे हैं
बस एक बहस के तौर पर
वे श्रीकाकुलम जैसी जगहों का भी नाम ले लेते हैं,
वे अजीब तरह से सफल हुए हैं इस देश में
मरे हुए आदमियों के नाम से
वे जीवित आदमियों को बुला रहे हैं।

वे लोग पेशेवर ख़ूनी हैं
जो नंगी ख़बरों का गला घोंट देते हैं
अख़बार की सनसनीख़ेज़ सुर्खियों की आड़ में
वे बार-बार उस एक चेहरे के पालतू हैं
जिसके पेशाबघर का नक़्शा मेरे गाँव के नक़्शे से बड़ा है।

बर्फीली दरारों में पायी जाने वाली
उजली जोंकों की तरह प्रकाशन संस्थाएँ इस देश कीः
हुगली के किनारे आत्महत्या करने के पहले
क्यों चीख़ा था वह युवा कवि - ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’
-उसकी लाश तक जाना भी मेरे लिए संभव नहीं हो सका
कि भाड़े पर लाया आदमी उसके लिए नहीं रो सका
क्योंकि इसे सबसे पहले
आज अपनी असली ताक़त के साथ हमलावर होना चाहिए।

हर बार कविता लिखते-लिखते
मैं एक विस्फोटक शोक के सामने खड़ा हो जाता हूँ
कि आखिर दुनिया के इस बेहूदे नक़्शे को
मुझे कब तक ढोना चाहिए,
कि टैंक के चेन में फँसे लाखों गाँवों के भीतर
एक समूचे आदमी को कितने घंटों तक सोना चाहिए?

कलकत्ते के ज़ू में एक गैंडे ने मुझसे कहा
कि अभी स्वतंत्रता कहीं नहीं हैं, सब कहीं सुरक्षा है;
राजधानी के सबसे सुर‍क्षित हिस्से में
पाला जाता है एक आदिम घाव
जो पैदा करता है जंगली बिल्लियों के सहारे पाशविक अलगाव
तब से मैंने तय कर लिया है
कि गैंडे की कठिन चमड़ी का उपयोग युद्ध के लिए नहीं
बल्कि एक अपार करूणा के लिए होना चाहिए।

मैं अभी मांस पर खुदे हुए अक्षरों को पढ़ रहा हूँ-
ज़हरीली गैसों और खूंखार गुप्तचरों से लैस
इस व्यवस्था का एक अदना सा आदमी
मेरे घर में किसी भी समय ज़बर्दस्ती घुस आता है
और बिजली के कोड़ों से
मेरी माँ की जाँघ
मेरी बहन की पीठ
और मेरी बेटी की छातियों को उधेड़ देता है,
मेरी खुली आँखों के सामने
मेरे वोट से लेकर मेरी प्रजनन शक्ति तक को नष्ट कर देता है,
मेरी कमर में रस्से बाँध कर
मुझे घसीटता हुआ चल देता है,
जबकि पूरा गाँव इस नृशंस दृश्य, को
तमाशबीन की तरह देखता रह जाता है।
क्योंकि अब तक सिर्फ़ जेल जाने की कविताएँ लिखी गयीं
किसी सही आदमी के लिए
जेल उड़ा देने की कविताएँ पैदा नहीं हुईं।
 
एक रात
जब मैं ताज़े और गर्म शब्दों की तलाश में था-
हज़ारों बिस्तरों में पिछले रविवार को पैदा हुए बच्चे निश्चिंत सो रहे थे,
उन बच्चों की लम्बाई
मेरी कविता लिखने वाली क़लम से थोड़ी-सी बड़ी थी।
तभी मुझे कोने में वे खड़े दिखाई दे गये, वे खड़े थे - कोने में
भरी हुई बंदूक़ो की तरह, सायरानो की तरह, सफ़ेद चीते की तरह,
पाठ्यक्रम की तरह, बदबू और संविधान की तरह।
वे अभिभावक थे,
मेरी पकड़ से बाहर- क्रूर परजीवी,
उनके लिए मैं बिलकुल निहत्था था
क्योंकि शब्दों से उनका कुछ नहीं बिगड़ता है
जब तक कि उनके पास सात सेंटीमीटर लम्बी गोलियाँ हैं
- रायफ़लों में तनी-पड़ी।
वे इन बच्चों को बिस्तरों से उठाकर
सीधे बारूदख़ाने तक ले जायेंगे।
वे हर तरह की कोशिश करेंगे
कि इन बच्चों से मेरी जान-पहचान न हो
क्योंकि मेरी मुलाक़ात उनके बारूदख़ाने में आग की तरह घुसेगी।
मैं गहरे जल की आवाज़-सा उतर गया।
बाहर हवा में, सड़क पर
जहाँ अचानक मुझे फ़ायर स्टेशन के ड्राइवरों ने पकड़ लिया और पूछा-
आखिर इस तरह अक्षरों का भविष्य क्या होगा ?
आखिर कब तक हम लोगों को दौड़ते हुए दमकलों के सहारे याद किया जाता रहेगा ?
उधर युवा डोमों ने इस बात पर हड़ताल की
कि अब हम श्मशान में अकाल-मृत्यु के मुर्दों को
सिर्फ़ जलायेंगे ही नहीं
बल्कि उन मुर्दों के घर तक जायेगें।
अक्सर कविता लिखते हुए मेरे घुटनों से
किसी अज्ञात समुद्र-यात्री की नाव टकरा जाती है
और फिर एक नये देश की खोज शुरू हो जाती है-
उस देश का नाम वियतनाम ही हो यह कोई ज़रूरी नहीं
उस देश का नाम बाढ़ मे बह गये मेरे पिता का नाम भी हो सकता है,
मेरे गाँव का नाम भी हो सकता है
मैं जिस खलिहान में अब तक
अपनी फ़सलों, अपनी पंक्तियों को नीलाम करता आया हूँ
उसके नाम पर भी यह नाम हो सकता है।
क्यों पूछा था एक सवाल मेरे पुराने पड़ोसी ने-
मैं एक भूमिहीन किसान हूँ,
क्या मैं कविता को छू सकता हूँ ?
अबरख़ की खान में लहू जलता है जिन युवा स्तनों और बलिष्ठ कंधों का
उन्हें अबरख़ ‘अबरख़’ की तरह
जीवन में एक बार भी याद नहीं आता है
क्यों हर बार आम ज़िंदगी के सवाल से
कविता का सवाल पीछे छूट जाता है ?

इतिहास के भीतर आदिम युग से ही
कविता के नाम पर जो जगहें ख़ाली कर ली जाती हैं-
वहाँ इन दिनों चर्बी से भरे हुए डिब्बे ही अधिक जमा हो रहे हैं,
एक गहरे नीले काँच के भीतर
सुकान्त की इक्कीस फ़ीट लंबी तड़पती हुई आँत
निकाल कर रख दी गयी है,
किसी चिर विद्रोह की रीढ़ पैदा करने के लिए नहीं;
बल्कि कविता के अज़ायबघर को
पहले से और अजूबा बनाने के लिए।
असफल, बूढ़ी प्रेमिकाओं की भीड़ इकट्ठी करने वाली
महीन तम्बाकू जैसी कविताओं के बीच
भेड़ों की गंध से भरा मेरा गड़रिये-जैसा चेहरा
आप लोगों को बेहद अप्रत्याशित लगा होगा,
उतना ही
जितना साहू जैन के ग्ला‍स-टैंक में
मछलियों की जगह तैरती हुई गजानन माधव मुक्तिबोध की लाश।

बम विस्फोट में घिरने के बाद का चेहरा मेरी ही कविताओं में क्यों है?
मैं क्यों नहीं लिख पाता हूँ वैसी कविता
जैसी बच्चों की नींद होती है,
खान होती है,
पके हुए जामुन का रंग होता है,
मैं वैसी कविता क्यों नहीं लिख पाता
जैसी माँ के शरीर में नये पुआल की महक होती है,
जैसी बाँस के जंगल में हिरन के पसीने की गंध होती है,
जैसे ख़रगोश के कान होते हैं,
जैसे ग्रीष्म के बीहड़ एकांत में
नीले जल-पक्षियों का मिथुन होता है,
जैसे समुद्री खोहों में लेटा हुआ खारा कत्थईपन होता है,
मैं वैसी कविता क्यों नहीं लिख पाता
जैसे हज़ारो फ़ीट की ऊँचाई से गिरनेवाले झरने की पीठ होती है ?
हाथी के पैरों के निशान जैसे गंभीर अक्षरों में
जो कविता दीवारों पर लिखी होती है
कई लाख हलों के ऊपर खुदी हुई है जो
कई लाख मज़दूरों के टिफ़िन कैरियर में
ठंढी, कमज़ोर रोटी की तरह लेटी हुई है जो कविता ?
 
एक मरे हुए भालू से लड़ती रहीं उनकी कविताएँ
कविता को घुड़दौड़ की जगह बनाने वाले उन सट्टेबाज़ों की
बाज़ी को तोड़ सकता है वही
जिसे आप मामूली आदमी कहते है;
क्योंकि वह किसी भी देश के झंडे से बड़ा है।
इस बात को वह महसूस करने लगा है,
महसूस करने लगा है वह
अपनी पीठ पर लिखे गये सैकड़ों उपन्यासों,
अपने हाथों से खोदी गयी नहरों और सड़कों को

कविता की एक महान सम्भावना है यह
कि वह मामूली आदमी अपनी कृतियों को महसूस करने लगा है-
अपनी टाँग पर टिके महानगरों और
अपनी कमर पर टिकी हुई राजधानियों को
महसूस करने लगा है वह।
धीरे-धीरे उसका चेहरा बदल रहा है,
हल के चमचमाते हुए फाल की तरह पंजों को
बीज, पानी और ज़मीन के सही रिश्तों को
वह महसूस करने लगा है।
कविता का अर्थ विस्तार करते हुए
वह जासूसी कुत्तों की तरह शब्दों को खुला छोड़ देता है,
एक छिटकते हुए क्षण के भीतर देख लेता है वह
ज़ंजीर का अकेलापन,
वह जान चुका है -
क्यों एक आदिवासी बच्चा घूरता है अक्षर,
लिपि से डरते हुए,
इतिहास की सबसे घिनौनी किताब का राज़ खोलते हुए।

(1972)

आलोक धन्वा

Friday, November 29, 2013

पुलिस-महिमा / काका हाथरसी

पड़ा - पड़ा क्या कर रहा , रे मूरख नादान
दर्पण रख कर सामने , निज स्वरूप पहचान
निज स्वरूप पह्चान , नुमाइश मेले वाले
झुक - झुक करें सलाम , खोमचे - ठेले वाले
कहँ ‘ काका ' कवि , सब्ज़ी - मेवा और इमरती
चरना चाहे मुफ़्त , पुलिस में हो जा भरती

कोतवाल बन जाये तो , हो जाये कल्यान
मानव की तो क्या चले , डर जाये भगवान
डर जाये भगवान , बनाओ मूँछे ऐसीं
इँठी हुईं , जनरल अयूब रखते हैं जैसीं
कहँ ‘ काका ', जिस समय करोगे धारण वर्दी
ख़ुद आ जाये ऐंठ - अकड़ - सख़्ती - बेदर्दी

शान - मान - व्यक्तित्व का करना चाहो विकास
गाली देने का करो , नित नियमित अभ्यास
नित नियमित अभ्यास , कंठ को कड़क बनाओ
बेगुनाह को चोर , चोर को शाह बताओ
‘ काका ', सीखो रंग - ढंग पीने - खाने के
‘ रिश्वत लेना पाप ' लिखा बाहर थाने के

काका हाथरसी

कचरा बीननेवाला लड़का / कुमार सुरेश

कोई ऋतु मौजूद नहीं होती
अपने ख़ालिस रूप में
उस लड़के के पास
जो बीनता है कचरा
अपने छोटे हाथों से

सचमुच कोई ऋतु नहीं
न सुहानी बारिश
न हाड़ कँपाती ठंड
न आग बरसाती लू

बारिश का एक ही मतलब होता है
कीमती कचरे का पानी से
ख़राब हो जाना

गर्मी का भी एक मतलब
बहुत से कचरे का हो जाना
आग के हवाले

सर्दी का मतलब इकट्ठा किए
कचरे को ख़ुद करना
आग के हवाले

उसके सपने में भी कोई
मौसम नहीं आता

बारिश का पानी,
काग़ज़ की कश्ती भी नहीं
रंगीन स्वेटर, गर्म बोर्नविटा नहीं
कोई पहाड़ या झरना नहीं
कार्टून फिल्म या हैरी पॉटर भी नहीं

आता है अक्सर एक कचरे का पहाड़ ही
जिस पर वह
इस तरह ओंधा लेटा रहता है
कि कचरे और लड़के के बीच
फ़र्क़ करना मुश्किल होता है।

कुमार सुरेश

उससे कहना कि कमाई के न चक्कर में रहे / 'अना' क़ासमी

उससे कहना कि कमाई के न चक्कर में रहे
दौर अच्छा नहीं बेहतर है कि वो घर में रहे

जब तराशे गए तब उनकी हक़ीक़त उभरी
वरना कुछ रूप तो सदियों किसी पत्थर में रहे

दूरियाँ ऐसी कि दुनिया ने न देखीं न सुनीं
वो भी उससे जो मिरे घर के बराबर में रहे

वो ग़ज़ल है तो उसे छूने की ह़ाजत भी नहीं
इतना काफ़ी है मिरे शेर के पैकर में रहे

तेरे लिक्खे हुए ख़त भेज रहा हूँ तुझको
यूँ ही बेकार में क्यों दर्द तिरे सर में रहे

ज़िन्दगी इतना अगर दे तो ये काफ़ी है ’अना’
सर से चादर न हटे पाँव भी चादर में रहे

'अना' क़ासमी

विदेशिनी-2 / कुमार अनुपम

वहाँ
तुम्हारा माथा तप रहा है
बुखार में

मैं बस आँसू में
भीगी कुछ पंक्तियाँ भेजता हूँ यहाँ से
इन्हें माथे पर धरना... ।

कुमार अनुपम

जो चल सको तो कोई ऐसी चाल चल जाना / फ़राज़

जो चल सको तो कोई ऐसी चाल चल जाना
मुझे गुमाँ भी ना हो और तुम बदल जाना

ये शोलगी हो बदन की तो क्या किया जाये
सो लाजमी है तेरे पैरहन का जल जाना

तुम्हीं करो कोई दरमाँ, ये वक्त आ पहुँचा
कि अब तो चारागरों का भी हाथ मल जाना

अभी अभी जो जुदाई की शाम आई थी
हमें अजीब लगा ज़िन्दगी का ढल जाना

सजी सजाई हुई मौत ज़िन्दगी तो नहीं
मुअर्रिखों ने मकाबिर को भी महल जाना

ये क्या कि तू भी इसी साअते-जवाल में है
कि जिस तरह है सभी सूरजों को ढल जाना

हर इक इश्क के बाद और उसके इश्क के बाद
फ़राज़ इतना आसाँ भी ना था संभल जाना

शोलगी - अग्नि ज्वाला, मुअर्रिख - इतिहास कार
मकाबिर - कब्र का बहुवचन, साअते-जवाल - ढलान का क्षण

अहमद फ़राज़

क्या खोएंगे आज न जाने / ओमप्रकाश यती


क्या खोएँगे आज न जाने
हम निकले हैं फिर कुछ पाने

ज़ाहिर खूब करें याराने
भीतर साधें लोग निशाने
 
कैसे - कैसे काम बनेगा
बुनते रहते ताने - बाने

अब भी यूँ लगता है जैसे
अम्मा बैठी है सिरहाने

घर ने मुझको ऐसे घेरा
छूटे सारे मीत पुराने

बेपरवाही भूल गए हम
रहते हैं हरदम कुछ ठाने


अम्मा तो जी भर के रोई
पीर सही चुपचाप पिता ने

ओमप्रकाश यती

इश्क़ सुनते थे जिसे हम वो यही है शायद/ अल्ताफ़ हुसैन हाली


इश्क़ सुनते थे जिसे हम वो यही है शायद
ख़ुद-ब-ख़ुद[1], दिल में है इक शख़्स समाया जाता

शब को ज़ाहिद से न मुठभेड़ हुई ख़ूब हुआ
नश्अ ज़ोरों पे था शायद न छुपाया जाता

लोग क्यों शेख़ को कहते हैं कि अय्यार है वो
उसकी सूरत से तो ऐसा नहीं पाया जाता


अब तो तफ़क़ीर[2], से वाइज़[3],  ! नहीं हटता ‘हाली’
कहते पहले तो दे-ले के हटाया जाता

अल्ताफ़ हुसैन हाली

शोर / अजेय

मैंने कभी शोर नहीं चाहा।
हमेशा चुप रहा मैं
फिर भी लगातार चीखा है
एक जानवर
मेरे भीतर
और न सुन पाया तुम्हारी कोई पुकार ।

1992

अजेय

नई खोज / अनीता कपूर

बेहतर होगा की टूट जाएँ
बंधन रगों में दौड़ती हुई
गुमनाम भाषा के
रेगिस्तानी सम्बन्धों के
लेकिन, इच्छाओं की हवा पर
मैं दौड़ूँ जरूर तुम्हारी आवाज़ पर

मेरी दिशा में
सिंदूरी रंग से लिखा मिलेगा तुमको
इक नयी इबारत का
लहराता हुआ ख़त

इक समुंदर की तरह
गहराई तक मैं ढूँढ़ती रही हूँ
मोती से भरी सीपियाँ
फिर भी
आँगन में झरती हैं रात-रात भर ओस

हरी चूड़ियों के रंग सा हरापन
दौड़ता है, मेरी रगो में
जैसे मैं चाहती हूँ
दौड़ना तुम्हारी आवाज़ पर

अनीता कपूर

वही है जुनूँ है वही क़ूच-ए-मलामत है / फ़राज़


वही जुनूँ[1]है वही क़ूच-ए-मलामत [2]है
शिकस्ते-दिल[3]प’ भी अहदे-वफ़ा [4]सलामत[5]है

ये हम जो बाग़ो-बहाराँ[6]का ज़िक्र[7]करते हैं
तो मुद्दआ[8]वो गुले-तर[9]वो सर्वो-क़ामत[10]है

बजा ये फ़ुर्सते-हस्ती[11]मगर दिले-नादाँ[12]
न याद कर के उसे भूलना क़यामत[13]है

चली चले यूँ ही रस्मे-वफ़ा[14]-ओ-मश्क़े-सितम[15]
कि तेगे़ -यारो-सरे-दोस्ताँ[16]सलामत है

सुकूते-बहर[17]से साहिल [18]लरज़[19]रहा है मगर
ये ख़ामुशी किसी तूफ़ान की अलामत [20]है

अजीब वज़्अ[21]का ‘अहमद फ़राज़’ है शाइर
कि दिल दरीदा[22]मगर पैरहन[23]सलामत है

अहमद फ़राज़

हुस्न जब मेहरबान हो तो क्या कीजिए / ख़ुमार बाराबंकवी

हुस्न जब मेहरबाँ हो तो क्या कीजिए
इश्क़ की मग़फ़िरत[1] की दुआ कीजिए

इस सलीक़े से उनसे गिला कीजिए
जब गिला कीजिए, हँस दिया कीजिए

दूसरों पर अगर तबसिरा[2] कीजिए
सामने आईना रख लिया कीजिए

आप सुख से हैं तर्के-तआल्लुक़[3] के बाद
इतनी जल्दी न ये फ़ैसला कीजिए

कोई धोखा न खा जाए मेरी तरह
ऐसे खुल के न सबसे मिला कीजिए

अक्ल-ओ-दिल अपनी अपनी कहें जब 'खुमार'
अक्ल की सुनिए, दिल का कहा कीजिये

ख़ुमार बाराबंकवी

आम की टहनी / कैलाश गौतम

देख करके बौर वाली
आम की टहनी
तन गये घुटने कि जैसे
खुल गई कुहनी ।

धूप बतियाती हवा से
रंग बतियाते
फूल-पत्तों के ठहाके
दूर तक जाते
      छू गई चुटकी
      हँसी की हो गई बोहनी ।

पीठ पर बस्ता लिए
विद्या कसम खाते
जा रहे स्कूल बच्चे
शब्द खनकाते
      इस तरह
      सब रम गए हैं सुध नहीं अपनी ।

राग में डूबीं दिशाएँ
रंग में डूबीं
हाथ आई ज़िन्दगी के
संग में डूबीं
      कल
      उतरने जा रही है खेत में कटनी ।

कैलाश गौतम

सफ़र के बाद भी ज़ौक़-ए-सफ़र न रह जाए / अभिषेक शुक्ला

सफ़र के बाद भी ज़ौक़-ए-सफ़र न रह जाए
ख़याल ओ ख़्वाब में अब के भी घर न रह जाए

मैं सोचता हूँ बहुत ज़िंदगी के बारे में
ये ज़िंदगी भी मुझे सोच कर न रह जाए

बस एक ख़ौफ़ में होती है हर सहर मेरी
निशान-ए-ख़्वाब कहीं आँख पर न रह जाए

ये बे-हिसी तो मिरी ज़िद थी मेरे अज्ज़ा से
कि मुझ में अपने तआक़ुब का डर न रह जाए

हवा-ए-शाम तिरा रक़्स ना-गुज़ीर सही
ये मेरी ख़ाक तिरे जिस्म पर न रह जाए

उसी की शक्ल लिया चाहती है ख़ाक मिरी
सो शहर-ए-जाँ में कोई कूज़ा-गर न रह जाए

गुज़र गया हो अगर क़ाफ़िला तो देख आओ
पस-ए-ग़ुबार किसी की नज़र न रह जाए

मैं एक और खड़ा हूँ हिसार-ए-दुनिया के
वो जिस की ज़िद में खड़ा हूँ उधर न रह जाए

अभिषेक शुक्ला

त्रिभंग / अजन्ता देव

हर कोई वही देखता है
जिस ओर संकेत करती हैं
मेरी अंगुलियाँ
और मैं
उत्तान बाहें फैलाए रह जाती हूँ त्रिभंग

हंसिनी, मयूरी या मृगी
इन्हें क्या देखना
ये तो नहीं जानतीं स्वयं को
कौतुक से देखती रहतीं हैं मुझे
जब मैं डिखाती हूँ
इनसे भी अदभुत्त इनकी ही भंगिमा

अप्सराएँ आती हैं मेरी सभा में
सीखने वह दिव्य संचालन
प्रेम प्रारम्भ में
दो देहों का नृत्य ही तो है ।

अजन्ता देव

Thursday, November 28, 2013

ऐ दिला हम हुए पाबंद-ए-गम-ए-यार के तू / क़लंदर बख़्श 'ज़ुरअत'

ऐ दिला हम हुए पाबंद-ए-गम-ए-यार के तू
अब अज़ीय्यत में भला हम हैं गिरफ्तार के तू

हम तो कहते थे न आशिक हो अब इतना तो बता
जा के हम रोते हैं पहरों पस-ए-दीवार के तू

हाथ क्यूँ इश्क-ए-बुताँ से न उठाया तू ने
कफ-ए-अफसोस हम अब मलते हैं हर बार के तू

वही महफिल है वही लोग वही है चर्चा
अब भला बैठे हैं हम शक्ल-ए-गुनाह-गार के तू

हम तो कहते थे कि लब से न लगा सागर-ए-इश्क
मय-ए-अंदोह से अब हम हुए सर-शार के तू

बे-जगह जी का फँसाना तुझै क्या था दरकार
तान ओ तशनी के अब हम हैं सज़ा-वार के तू

वहशत-ए-इश्क बुरी होती है देखा नादाँ
हम चले दश्त को अब छोड़ के घर-बार के तू

आतिश-ए-इश्क को सीने में अबस भड़काया
अब भला खीचूँ हूँ मैं आह-ए-शरर-बार के तू

हम तो कहते थे न हम-राह किसी के लग चल
अब भला हम हुए रूसवा सर-ए-बाज़ार के तू

गौर कीजे तो ये मुश्किल है जमीं ऐ ‘जुरअत’
देखें हम इस में कहें और भी अशआर के तू

क़लंदर बख़्श 'ज़ुरअत'

ग्लोब / अनुज लुगुन

मेरे हाथ में क़लम थी
और सामने विश्व का मानचित्र
मैं उसमें महान दार्शनिकों
और लेखकों की पंक्तियाँ ढूँढ़ने लगा
जिन्हें मैं गा सकूँ
लेकिन मुझे दिखाई दी
क्रूर शासकों द्वारा खींची गई लकीरें
उस पार के इंसानी ख़ून से
इस पार की लकीर, और
इस पार के इंसानी ख़ून से
उस पार की लकीर ।

मानचित्र की तमाम टेढ़ी-मेंढ़ी
रेखाओं को मिलाकर भी
मैं ढूँढ़ नही पाया
एक आदमी का चेहरा उभारने वाली रेखा
मेरी गर्दन ग्लोब की तरह ही झुक गई
और मैं रोने लगा ।

तमाम सुने-सुनाए, बताए
तर्कों को दरकिनार करते हुए
आज मैंने जाना
ग्लोब झुका हुआ क्यों है ।

अनुज लुगुन

जल्वा पाबंद-ए-नज़र भी है नज़र / ग़ुलाम रब्बानी 'ताबाँ'

 जल्वा पाबंद-ए-नज़र भी है नज़र-साज़ भी है
 पर्दा-ए-राज़ भी है पर्दा-दर-ए-राज़ भी है

 हम-नफ़स आग न लग जाए कहीं महफ़िल में
 शोला-ए-साज़ भी है शोला-ए-आवाज़ भी है

 यूँ भी होता है मदावा-ए-ग़म-ए-महरूमी
 जब्र-ए-सय्याद भी है हसरत-ए-परवाज़ भी है

 मेरे अफ़कार की रानाइयाँ तेरे दम से
 मेरी आवाज़ में शामिल तेरी आवाज़ भी है

 ज़िंदगी ज़ौक़-ए-नुमू ज़ौक़-ए-तलब ज़ौक़-ए-सफ़र
 अंजुमन-साज़ भी है गर्म-ए-तग-ओ-ताज़ भी है

 मेरे अफ़्कार ओ ख़यालात में सारी 'ताबाँ'
 हुस्न-ए-दिल्ली भी है रानाई-ए-शीराज़ भी है

ग़ुलाम रब्बानी 'ताबाँ'

मेरे नैना सावन भादों / आनंद बख़्शी

 
किशोर:
मेरे नैना सावन भादों
फिर भी मेरा मन प्यासा
फिर भी मेरा मन प्यासा

ऐ दिल दीवाने, खेल है क्या जाने
दर्द भरा ये, गीत कहाँ से
इन होंठों पे आए, दूर कहीं ले जाए
भूल गया क्या, भूल के भी है
मुझको याद ज़रा सा, फिर भी ...

बात पुरानी है, एक कहानी है
अब सोचूँ तुम्हें, याद नहीं है
अब सोचूँ नहीं भूले, वो सावन के झूले
ऋतु आये ऋतु जाये देके
झूठा एक दिलासा, फिर भी...

बरसों बीत गए, हमको मिले बिछड़े
बिजुरी बनकर, गगन पे चमके
बीते समय की रेखा, मैं ने तुम को देखा
मन संग आँख-मिचौली खेले
आशा और निराशा, फिर भी...

लता:
मेरे नैना सावन भादों
फिर भी मेरा मन प्यासा
फिर भी मेरा मन प्यासा

बात पुरानी है...

ऐ दिल दीवाने ...

बरसों बीत गए, हमको मिले बिछड़े
बिजुरी बनकर, गगन पे चमके
बीते समय की रेखा, मैंने तुमको देखा
तड़प तड़प के इस बिरहन को
आया चैन ज़रासा, फिर भी ...

घुंघरू की छमछम, बन गई दिल का ग़म
डूब गया दिल, यादों में फिर
उभरी बेरंग लकीरें, देखो ये तसवीरें
सूने महल में नाच रही है
अब तक एक रक्कासा, फिर भी...

आनंद बख़्शी

यूँ मिरे होने का मुझ पर आश्कार उस ने किया / अमीर इमाम

यूँ मिरे होने का मुझ पर आश्कार उस ने किया
मुझ में पोशीदा किसी दरिया को पार उस ने किया

पहले सहरा से मुझे लाया समुंदर की तरफ़
नाव पर काग़ज़ की फिर मुझ को सवार उस ने किया

मैं था इक आवाज़ मुझ को ख़ामुशी से तोड़ कर
किर्चियों को देर तक मेरी शुमार उस ने किया

दिन चढ़ा तो धूप की मुझ को सलीबें दे गया
रात आई तो मिरे बिस्तर को दार उस ने किया

जिस को उस ने रौशनी समझा था मेरी धूप थी
शाम होने का मिरी फिर इंतिज़ार उस ने किया

देर तक बुनता रहा आँखों के करघे पर मुझे
बुन गया जब मैं तो मुझ को तार तार उस ने किया

अमीर इमाम

हाए लोगों की करम-फरमाइयाँ / 'कैफ़' भोपाली

हाए लोगों की करम-फरमाइयाँ
तोहमतें बदनामियाँ रूसवाइयाँ

ज़िंदगी शायद इसी का नाम है
दूरियाँ मजबूरियाँ तन्हाइयाँ

क्या ज़माने में यूँ ही कटती है रात
करवटें बेताबियाँ अँगड़ाइयाँ

क्या यही होती है शाम-ए-इंतिज़ार
आहटें घबराहटें परछाइयाँ

एक रिंद-ए-मस्त की ठोकर में है
शाहियाँ सुल्तानियाँ दराइयाँ

एक पैकर में सिमट कर रह गई
खूबियाँ जे़बाइयाँ रानाइयाँ

रह गई एक तिफ्ल-ए-मकतब के हुजूर
हिकमतें आगाहियाँ दानाइयाँ


ज़ख्म दिल के फिर हरे करने लगी
बदलियाँ बरखा रूतें पुरवाइयाँ

दीदा ओ दानिस्ता उन के सामने
लग्ज़िशें नाकामियाँ पसपाइयाँ

मेरे दिल की धड़कनों में ढल गई
चूड़ियाँ, मौसीकियाँ, शहनाइयाँ

उनसे मिलकर और भी कुछ बढ़ गई
उलझनें फिक्रें कयास-आराइयाँ

‘कैफ’ पैदा कर समंदर की तरह
वुसअतें खामोशियाँ गहराइयाँ

'कैफ़' भोपाली

उसका अपना ही करिश्मा है फ़सूँ है यूँ है / फ़राज़

उसका अपना ही करिश्मा है फ़सूँ है, यूँ है
यूँ तो कहने को सभी कहते है, यूँ है, यूँ है

जैसे कोई दर-ए-दिल हो पर सिताज़ा कब से
एक साया न दरू है न बरू है, यूँ है,

तुमने देखी ही नहीं दश्त-ए-वफा की तस्वीर
चले हर खार पे कि कतरा-ए-खूँ है, यूँ है

अब तुम आए हो मेरी जान तमाशा करने
अब तो दरिया में तलातुम न सकूँ है, यूँ है

नासेहा तुझको खबर क्या कि मुहब्बत क्या है
रोज़ आ जाता है समझाता है, यूँ है, यूँ है

शाइरी ताज़ा ज़मानो की है मामर 'फ़राज़'
ये भी एक सिलसिला कुन्फ़े क्यूँ है, यूँ है, यूँ है

अहमद फ़राज़

भोला शंकर-1 / कुमार सुरेश

नन्हा शिशु
गेहॅुँए रंग
साधारण नाक नक्श वाली
युवा माँ
के साथ
आया था
पिछले साल
शहर में

माँ, दिन भर
ईंट, गारा, पत्थर
ढोती थी

शिशु
पेड़ और खम्बे से बँधे
पुराने कपडे़ के झूले
में लेटा

धूप और धूल खाता था।

कुमार सुरेश

रोटी / अपर्णा भटनागर

धूप तो कनक-कनक कर बरसती रही
तब भी जब तुम छाल की गर्माहट
और गुफाओं की सीलन सूंघ बसर करते थे ..
यही तो था -
तुम्हारे आदिम होने का पहला अहसास!...
तब अनजाने ये धूप बो आये थे तुम
और .. और... और
अचानक न जाने कितनी महक
खलिहान बन
तुम्हारी जन्म लेती सभ्यता से
फूट पड़ी
कलकल कर ...
और तब
बस तब बीहड़ में जन्म लेकर
हँसा था पहला गाँव .
तुमने अपने चकमक पर दागी थी
अपनी भूख!
तब भूखी थी सामूहिक भूख!
सो मिल-बाँट सो लिए थे
जी लिए थे ...
बस! तभी हाँ,
तभी ..
इस नींद में स्वप्नों का अंतर
एक फासला ...तय कर गयी भूख!
अजब स्पर्धा दे गयी भूख!
अब रोटी की गोलाई कहीं चाँद है
तो कहीं ठन्डे तवे की गोल जलन!
पेट के छाले बन
दुखती है रोटी ..
रिसती है रोटी ..
और फिर यूँ ही करवट बदल सो जाती है .
कल की बाट है?
या तेरे रंध्रों में पक रही कोई जिजीविषा?

अपर्णा भटनागर

चश्‍म-ए-हैरत सारे मंज़र एक जैसे हो गए / ख़ुशबीर सिंह 'शाद'

चश्‍म-ए-हैरत सारे मंज़र एक जैसे हो गए
देख ले सहरा समंदर एक जैसे हो गए

जागती आँखों को मेरी बारहा धोखा हुआ
ख़्वाब और ताबीर अक्सर एक जैसे हो गए

वक़्त ने हर एक चेहरा एक जैसा कर दिया
आरजू़ के सारे पैकर एक जैसे हो गए

जब से हम को ठोकरें खाने की आदत हो गई
रास्तों के सारे पत्थर एक जैसे हो गए

दीदा-ए-तर की कहानी अब मुकम्मल हो गई
दर्द सब अश्‍कों में घुल कर एक जैसे हो गए

‘शाद’ इतनी बढ़ गई हैं मेरे दिल की वहशतें
अब जुनूँ में दश्‍त और घर एक जैसे हो गए

ख़ुशबीर सिंह 'शाद'

इक आह-ए-ज़ेर-ए-लब के गुनह-गार / ज़ैदी

इक आह-ए-ज़ेर-ए-लब के गुनह-गार हो गए
अब हम भी दाख़िल-ए-सफ़-ए-अग़्यार हो गए

जिस दर्द को समझते थे हम उन का फ़ैज़-ए-ख़ास
उस दर्द के भी लाख ख़रीदार हो गए

जिन हौसलों से मेरा जुनूँ मुतमइन न था
वो हौसले ज़माने के मेयार हो गए

साक़ी के इक इशारे ने क्या सेहर कर दिया
हम भी शिकार-ए-अनदक-ओ-बिस्यार हो गए

अब उन लबों में शहद ओ शकर घुल गए तो क्या
जब हम हलक़-ए-तल्ख़ी-ए-गुफ़्तार हो गए

हर वादा जैसे हर्फ़-ए-ग़लत था सराब था
हम तो निसार-ए-जुरअत-ए-इनकार हो गए

तेरी नज़र पयाम-ए-यक़ीं दे गई मगर
कुछ ताज़ा वसवसे भी तो बेदार हो गए

इस मय-कदे में उछली है दस्तार बारहा
वाइज़ यहाँ कहाँ से नुमूदार हो गए

सर-सब्ज़ पत्तियों का लहू चूस चूस कर
कितने ही फूल रौनक़-ए-गुल-ज़ार हो गए

'ज़ैदी' ने ताज़ा शेर सुनाए बा-रंग-ए-ख़ास
हम भी फ़िदा-ए-शोख़ी-ए-इंकार हो गए

अली जव्वाद 'ज़ैदी'

तेरा मुखु सुहावा जीउ सहज धुनि बाणी / अर्जुन देव

तेरा मुखु सुहावा जीउ सहज धुनि बाणी।।
चिरु होआ देखे सारिंग पाणी।।
धंनु सु देसु जहा तूं वसिआ मेरे सजण मीत मुरारे जीउ।।
हउ घोली हउ घोल घुमाई गुरु सजण मीत मुरारे जीउ।।

अर्जुन देव

पर्दा उठा के महर को रूख़ की झलक दिखा के यूँ / ग़ुलाम हमदानी 'मुसहफ़ी'

पर्दा उठा के महर को रूख़ की झलक दिखा के यूँ
बाग़ में जा के सर्व को क़द की लचक दिखा के यूँ

आतिश-ए-गुल चमन के बीच जब हमा सू हो शोला-ज़न
अपने लिबास-ए-सुर्ख़ की उस को भड़क दिखा के यूँ

जो कोई पूछे जान-ए-मन शोख़ी ओ जलवा किस तरह
लमा-ए-बर्क़ की तरह एक झमक दिखा के यूँ

शीशे के बीच दुख़्त-ए-रज़ करती है शोख-चश्मियाँ
तू भी टुक अपनी चश्म की उस को भड़क दिखा कि यूँ

नज़रें मिलावे गर कोई तुझ से कभी तो जान-ए-मन
उस के तईं तू दूर से आँखें तनक दिखा के यूँ

कबक ओ तदरौ गर करें आगे मेरे ख़िराम-ए-नाज़
अपने ख़िराम-ए-नाज़ की उन को लटक दिखा के यूँ

रातों को तुझ से जागना गर कोई पूछे ‘मुसहफ़ी’
चश्म-ए-सितारा बाज़ है उस को फ़लक दिखा के यूँ

ग़ुलाम हमदानी 'मुसहफ़ी'

पुण्य फलीभूत हुआ / अमरनाथ श्रीवास्तव

पुण्य फलीभूत हुआ कल्प है नया
सोने की जीभ मिली
स्वाद तो गया

छाया के आदी हैं गमलों के पौधे
जीवन के मंत्र हुए सुलह और सौदे
अपना जड़ भूल गई
द्वार की जया

हवा और पानी का अनुकूलन इतना
बंद खिड़कियाँ बाहर की सोचें कितना
अपनी सुविधा से है
आँख में दया

मंज़िल दर मंज़िल है एक ज़हर धीमा
सीढ़ियाँ बताती है घुटनों की सीमा
मुझसे तो ऊँची है
डाल पर बया

अमरनाथ श्रीवास्तव

कुसुम चयन / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

 
जो न बने वे विमल लसे विधु-मौलि मौलि पर।
जो न बने रमणीय सज, रमा-रमण कलेवर।
बर बृन्दारक बृन्द पूज जो बने न बन्दित।
जो न सके अभिनन्दनीय को कर अभिनन्दित।
जो विमुग्धा कर हुए वे न बन मंजुल-माला।
जो उनसे सौरभित प्रेम का बना न प्याला।
कर के नृप-कुल-तिलक क्रीट-रत्नों को रंजित।
कर न सके जो कलित-कुसुम-कुल महिमा व्यंजित।
जो न सुबासित हुआ तेल उनसे वह आला।
जिसने सुखमय व्यथित-जीव-जीवन कर डाला।
जो न गौरवित हुए वे परस गुरु-पद-पंकज।
जो न लोकहित करी बनी उनकी सुन्दर रज।
तो किसी काल में क्यों करे विकच-कुसुम-चय का चयन।
कर भावुक अवमानना भाव भरा भावुक सुजन|

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

वह हृदय नहीं है पत्थर है / गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'

जो भरा नहीं है भावों से
बहती जिसमें रसधार नहीं
वह हृदय नहीं है पत्थर है
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं

गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'

क़ुसूर इश्क़ में ज़ाहिर है सब हमारा था / ग़ुलाम रब्बानी 'ताबाँ'

क़ुसूर इश्क़ में ज़ाहिर है सब हमारा था
 तेरी निगाह ने दिल को मगर पुकारा था

 वो दिन भी क्या थे के हर बात में इशारा था
 दिलों का राज़ निगाहों से आश्कारा था

 हवा-ए-शौक़ ने रंग-ए-हया निखारा था
 चमन चमन लब ओ रुख़्सार का नज़ारा था

 फ़रेब खा के तेरी शोख़ियों से क्या पूछें
 हयात ओ मर्ग में किस की तरफ़ इशारा था

 सुजूद-ए-हुस्न की तमकीं पे बार था वरना
 जबीन-ए-शौक़ को ये नंग भी गवारा था

 चमन में आग न लगती तो और क्या होता
 के फूल फूल के दामन में इक शरारा था

 तबाहियों का तो दिल की गिला नहीं लेकिन
 किसी ग़रीब का ये आख़िरी सहारा था

 बहुत लतीफ़ थे नज़्ज़ारे हुस्न-ए-बरहम के
 मगर निगाह उठाने का किस को यारा था

 ये कहिए ज़ौक़-ए-जुनूँ काम आ गया 'ताबाँ'
 नहीं तो रस्म-ओ-रह-ए-आगही ने मारा था

ग़ुलाम रब्बानी 'ताबाँ'

धीर-धीरे / अमरजीत कौंके

इसी तरह धीरे-धीरे
ख्वाहिशें ख़त्म होती हैं
इसी तरह धीरे-धीरे
मरता है आदमी

इसी तरह धीरे-धीरे
आँखों से सपने
सपनों से रंग ख़त्म होते
रंगों से ख़त्म होती है दुनिया
सफ़ेद कैनवस पर काली चिड़ियाँ
मृत नज़र आती हैं

इसी तरह धीरे-धीरे
इबारतें कविताओं में सिमटतीं
कविताएँ पंक्तियों में सिकुड़तीं
पंक्तियाँ शब्दों में लुप्त होतीं
और शब्द शून्य में खो जाते

इसी तरह धीरे-धीरे
इन्तज़ार करते
आँखों में इन्तज़ार ख़त्म होता
तड़पते-तड़पते
होठों का लरजना भूल जाता
छुअन को ललकते
पोरों से कम्पन गायब हो जाता

इसी तरह धीरे-धीरे
घर इन्सान को खा जाते
दीवारें उसकी मज़बूरी बन जातीं
रिश्ते जो उसके पाँव की बेडियाँ होते
आदमी उन्हें
पाजेब बना कर थिरकने लगता है

इसी तरह धीरे-धीरे
व्यवस्था के खिलाफ़ जूझता आदमी
व्यवस्था का अहम् हिस्सा बन जाता
रंगों की दुनिया में
मटमैला-सा रंग बन जाता
और कैनवस से एक दिन लुप्त हो जाता

इसी तरह धीरे-धीरे
सोचते-सोचते
आदमी जड़ हो जाता है एक दिन
पता ही नहीं चलता
कब कोई
उसके हाथों से क़लम
कोई कागज़
छीन कर ले जाता

इसी तरह धीरे-धीरे
एक कवि
कवि से कोल्हू का बैल बन जाता
और आँखों पर पट्टी बांध कर
मुर्दा ज़िन्दगी की
परिक्रमा करने लगता।


मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा

अमरजीत कौंके

माला फेरो स्वास की, जपो अजप्पा जाप / गंगादास

माला फेरो स्वास की, जपो अजप्पा जाप ।
सोहं सोहं सुने से, कटते हैं सब पाप ।।

कटते हैं सब पाप जोग-सरमें कर मंजन ।
छः चक्कर ले शोध अंत पावें मनरंजन ।।

गंगादास परकास होय खुलतेई घट-ताला ।
मनो मेरा कहा, भजो स्वासों की माला ।।

गंगादास

पत्ती / अशोक वाजपेयी

जितना भर हो सकती थी
उतना भर हो गई पत्ती
उससे अधिक हो पाना उसके बस में न था
न ही वृक्ष के बस में
जितना काँपी वह पत्ती
उससे अधिक काँप सकती थी
यह उसके बस में था
होने और काँपने के बीच
हिलगी हुई वह एक पत्ती थी

अशोक वाजपेयी

फूल की स्मरण-प्रतिमा / अज्ञेय

यह देने का अहंकार
छोड़ो ।
कहीं है प्यार की पहचान
तो उसे यों कहो :
'मधुर ये देखो
फूल । इसे तोड़ो;
घुमा-फिरा कर देखो,
फिर हाथ से गिर जाने दो :
हवा पर तिर जाने दो-
(हुआ करे सुनहली) धूल ।'

फूल की स्मरण-प्रतिमा ही बचती है ।
तुम नहीं, न तुम्हारा दान ।

अज्ञेय

दो पाटों की दुनिया / गिरिजाकुमार माथुर

दो पाटों की दुनिया
चारों तरफ शोर है,
चारों तरफ भरा-पूरा है,
चारों तरफ मुर्दनी है,
भीड और कूडा है।

हर सुविधा
एक ठप्पेदार अजनबी उगाती है,
हर व्यस्तता
और अधिक अकेला कर जाती है।

हम क्या करें-
भीड और अकेलेपन के क्रम से कैसे छूटें?

राहें सभी अंधी हैं,
ज्यादातर लोग पागल हैं,
अपने ही नशे में चूर-
वहशी हैं या गाफिल हैं,

खलानायक हीरो हैं,
विवेकशील कायर हैं,
थोडे से ईमानदार-
हम क्या करें-
अविश्वास और आश्वासन के क्रम से कैसे छूटें?

तर्क सभी अच्छे हैं,
अंत सभी निर्मम हैं,
आस्था के वसनों में,
कंकालों के अनुक्रम हैं,

प्रौढ सभी कामुक हैं,
जवान सब अराजक हैं,
बुध्दिजन अपाहिज हैं,
मुंह बाए हुए भावक हैं।

हम क्या करें-
तर्क और मूढता के क्रम से कैसे छूटें!

हर आदमी में देवता है,
और देवता बडा बोदा है,
हर आदमी में जंतु है,
जो पिशाच से न थोडा है।

हर देवतापन हमको
नपुंसक बनाता है
हर पैशाचिक पशुत्व
नए जानवर बढाता है,

हम क्या करें-
देवता और राक्षस के क्रम से कैसे छूटें?

बरसों के बाद कभी
बरसों के बाद कभी,
हम-तुम यदि मिलें कहीं,
देखें कुछ परिचित से,
लेकिन पहिचानें ना।
याद भी न आए नाम,
रूप, रंग, काम, धाम,
सोचें,
यह सम्भव है-
पर, मन में मानें ना।

हो न याद, एक बार
आया तूफान, ज्वार
बंद, मिटे पृष्ठों को-
पढने की ठानें ना।

बातें जो साथ हुईं,
बातों के साथ गईं,
आंखें जो मिली रहीं-
उनको भी जानें ना।

सार्थकता
तुमने मेरी रचना के
सिर्फ एक शब्द पर
किंचित मुसका दिया
- अर्थ बन गई भाषा
छोटी सी घटना थी
सहसा मिल जाने की
तुमने जब चलते हुए
एक गरम लाल फूल
होठों पर छोड दिया
-घटना सच हो गई

संकट की घडियों में
बढते अंधकार पर
तुमने निज पल्ला डाल
गांठ बना बांध लिया
- व्यथा अमोल हो गई
मुझसे जब मनमाना
तुमने देह रस पाकर
आंखों से बता दिया
-देह अमर हो गई

अ-नया वर्ष
इसके पहले कि हम एक कविता तो दूर
एक अच्छा खत ही लिख पाते

इसके पहले कि हम किसी शाम
बिना साथ ही उदास हुए हंस पाते

इसके पहले कि हम एक दिन
सिर्फ एक ही दिन
पूरे दिन की तरह बिता पाते

इसके पहले कि हम किसी व्यक्ति
या घटना या स्थान या स्थिति से
बिना ऊबे हुए
अपरिचित की तरह मिले पाते

इसके पहले कि
सुख के और संकट के क्षणों को
हम अलग-अलग करके
समझ पाते

इसके पहले
इसके पहले
एक और अर्थहीन बरसा गीत गया।

गिरिजाकुमार माथुर

तज़ाद-ए-जज्बात में ये नाजुक मकाक आया तो क्या करोगे / 'क़ाबिल' अजमेरी

तज़ाद-ए-जज्बात में ये नाजुक मकाक आया तो क्या करोगे
मैं रो रहा हूँ तो हँस रहे हो, मैं मुसकुराया तो क्या करोगे

मुझे तो इस दर्जा वक्त-ए-रूखसत सुकूँ की तलकीन कर रहे हो
मगर कुछ अपने लिए भी सोचा मैं याद आया तो क्या करोगे

कुछ अपने दिल पर भी ज़ख्म खाओ मेरे लहू की बहार कब तक
मुझे सहारा बनाने वालों में लड़खड़ाया तो क्या करोगे

उतर तो सकते हो यार लेकिन मआल पर भी निगाह कर लेा
खुदा-न-कर्दा सुकून-ए-साहिल न रास आया तो क्या करोगे

अभी तो तनकीद हो रही है मेरे मज़ाक-ए-जुनूँ पे लेकिन
तुम्हारी जुल्फों की बरहमी का सवाल आया तो क्या करोगे

अभी तो दामन छुड़ा रहे हो बिगड़ के ‘काबिल’ से जा रहे हो
मगर कभी दिल की धड़कनों में शरीक पाता तो क्या करोगे

'क़ाबिल' अजमेरी

मन के सूरज का ढुलकना / अमिता प्रजापति

यह जीवन का आसमान है
यहाँ सारे सम्बन्ध
सितारों की तरह चमक रहे हैं

इन सितारों को
फूलों की तरह चुनकर
कुरते पर टाँक लूँ
मोतियों की तरह माला बनाकर
देह पर सजा लूँ

लेकिन मेरे मन का सूरज
ढुलक कर दूर चला गया है

अब मैं नहीं खोजना चाहती अंधेरे में
प्रेम की सुई

खुले आसमान के नीचे
रात की ठंडक में
मैं एक भरपूर नींद लेना चाहती हूँ

अमिता प्रजापति

उम्मीद / अविनाश

सर से पानी सरक रहा है आंखों भर अंधेरा
उम्मीदों की सांस बची है होगा कभी सबेरा

दुर्दिन में है देश शहर सहमे सहमे हैं
रोज़ रोज़ कई वारदात कोई न कोई बखेड़ा

पूरी रात अगोर रहे थे खाली पगडंडी
सुबह हुई पर अब भी है सन्नाटे का घेरा

सबके चेहरे पर खामोशी की मोटी चादर
अब भी पूरी बस्ती पर है गुंडों का पहरा

भूख बड़े सह लेंगे, बच्चे रोएंगे रोटी रोटी
प्यास लगी तो मांगेंगे पानी कतरा कतरा

अब तो चार क़दम भर थामें हाथ पड़ोसी का
जलते हुए गांव में साथी क्या तेरा क्या मेरा

अविनाश

Wednesday, November 27, 2013

विष्फोटक रसायन / अमित

धर्म यानि मजहब
एक विष्फोटक रसायन
अति संवेदनशील , जरा सी हुई ढील
और दग गया।

अमिताभ त्रिपाठी ‘अमित’

अच्छे ईसा हो मरीज़ों का ख़याल अच्छा है / अमीर मीनाई

 

अच्छे ईसा[1]हो मरीज़ों[2]का ख़याल अच्छा है
हम मरे जाते हैं तुम कहते हो हाल अच्छा है

तुझ से माँगूँ मैं तुझी को कि सब कुछ मिल जाये
सौ सवालों से यही इक सवाल अच्छा है

देख ले बुलबुल-ओ-परवाना की बेताबी को
हिज्र[3]अच्छा न हसीनों[4] का विसाल[5]अच्छा है

आ गया उस का तसव्वुर[6]तो पुकारा ये शौक़
दिल में जम जाये इलाही ये ख़याल अच्छा है

अमीर मीनाई

ममता से करुणा से / कैलाश गौतम

ममता से, करुणा से, नेह से दुलार से
घाव जहाँ भी देखो, सहलाओ प्यार से ।

नारों से भरो नहीं
भरो नहीं वादों से
अंतराल भरो सदा
गीतों-संवादों से
हो जाएँगे पठार शर्तिया कछार से ।

भटके ना राहगीर
कोई अँधियारे में
दीये की तरह जलो
घर के गलियारे में
लड़ो आर-पार की लड़ाई अंधकार से ।

हाथ बनो, पैर बनो
राह बनो जंगल में
लहरों में नाव बनो
सेतु बनो दलदल में
प्यासों की प्यास हरो पानी की धार से ।

कैलाश गौतम

रास्ता पुर-ख़ार दिल्ली दूर है / ख़ालिद महमूद

रास्ता पुर-ख़ार दिल्ली दूर है
सच कहा है यार दिल्ली दूर है

काम दिल्ली के सिवा होते नहीं
और ना-हंजार दिल्ली दूर है

अब किसी जा भी सुकूँ मिलता नहीं
आसमाँ कह्हार दिल्ली दूर है

फूँक देता है हर इक के कान मे
सुब्ह का अख़बार दिल्ली दूर है

कल तलक कहते हैं दिल्ली दूर थी
आज भी सरकार दिल्ली दूर है

सुब्ह गुज़री शाम होने आई मीर
तेज़ कर रफ़्तार दिल्ली दूर है

कौन दिल्ली से मसीहा लाएगा
ऐ दिल-ए-बीमारी दिल्ली दूर है

ख़ालिद महमूद

हज़ार वक़्त के परतव-नज़र में होते हैं / 'अज़ीज़' हामिद मदनी

हज़ार वक़्त के परतव-नज़र में होते हैं
हम एक हल्क़ा-ए-वहशत-असर में होते हैं

कभी कभी निगह-ए-आश्ना के अफ़साने
उसी हदीस-ए-सर-ए-रह-गुज़र में होते हैं

वही हैं आज भी उस जिस्म-ए-नाज़नीं के ख़ुतूत
जो शाख-ए-गुल में जो मौज-ए-गुहर में होते हैं

खुला ये दिल पे के तामीर-ए-बाम-ओ-दर में होते हैं
बगूले क़ालिब-ए-दीवार-ओ-दर में होते हैं

गुज़र रहा है तू आँखें चुरा के यूँ न गुज़र
ग़लत-बयाँ भी बहुत रह-गुज़र में होते हैं

क़फ़स वही है जहाँ रंज-ए-नौ-ब-नौ ऐ दोस्त
निगह-दारी एहसास पर में होते हैं

सरिश्त-ए-गुल ही में पिनहाँ हैं सारे नक़्श ओ निगार
हुनर यही तो कफ़-ए-कूज़ा-गर में होते हैं

तिल्सिम-ए-ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा ओ दाम-ए-बर्दा-फ़रोश
हज़ार तरह के क़िस्से सफ़र में होते हैं

'अज़ीज़' हामिद मदनी

सुनो सागर / कुमार रवींद्र

वक़्त बीता
आँख जब बहती नदी थी
दूसरों के दर्द को
महसूस करने की सदी थी

चाँद भी तब था नहीं हरदम
अधेरे पाख में
सुनो सागर!

नेह करुणा की नदी वह
अभी पिछले दिनों सूखी
चल रही थीं बहुत पहले से
हवाएँ तेज़ रुखी

मर चुकी हैं कोपलें भी आख़िरी
इस शाख में
सुनो सागर!

बूँद भर जल ही बहुत
जो आँख को सागर करेगा
मेंह बन कर वही
सूखी हुई नदियों को भरेगा

प्राण फूटेगा उसी क्षण चिता की
इस राख में
सुनो सागर!

कुमार रवींद्र

इश्क़ की दुनिया में इक हंगामा बरपा कर दिया / एहसान दानिश

इश्क़ की दुनिया में इक हंगामा बरपा कर दिया
ऐ ख़याल-ए-दोस्त ये क्या हो गया क्या कर दिया

ज़र्रे ज़र्रे ने मिरा अफ़्साना सुन कर दाद दी
मैं ने वहशत में जहाँ को तेरा शैदा कर दिया

तूर पर राह-ए-वफ़ा में बो दिए काँटे कलीम
इश्क़ की वुसअत को मस्दूद-ए-तक़ाज़ा कर दिया

बिस्तर-ए-मशरिक़ से सूरज ने उठाया अपना सर
किस ने ये महफ़िल में ज़िक्र-ए-हुस्न-ए-यक्ता कर दिया

चश्म-ए-नर्गिस जा-ए-शबनम ख़ून रोएगी नदीम
मैं ने जिस दिन गुलसिताँ का राज़ इफ़्सा कर दिया

क़ैस ये मेराज-ए-उल्फ़त है कि एजाज़-ए-जुनूँ
नज्द के हर ज़र्रे को तस्वीर-ए-लैला कर दिया

मुद्दआ-ए-दिल कहूँ ‘एहसान’ किस उम्मीद पर
वो जो चाहेंगे करेंगे और जो चाहा कर दिया

एहसान दानिश

गान्ही जी / कैलाश गौतम

सिर फूटत हौ, गला कटत हौ, लहू बहत हौ, गान्‍ही जी
देस बंटत हौ, जइसे हरदी धान बंटत हौ, गान्‍ही जी
बेर बिसवतै ररूवा चिरई रोज ररत हौ, गान्‍ही जी
तोहरे घर क' रामै मालिक सबै कहत हौ, गान्‍ही जी

हिंसा राहजनी हौ बापू, हौ गुंडई, डकैती, हउवै
देसी खाली बम बनूक हौ, कपड़ा घड़ी बिलैती, हउवै
छुआछूत हौ, ऊंच नीच हौ, जात-पांत पंचइती हउवै
भाय भतीया, भूल भुलइया, भाषण भीड़ भंड़इती हउवै

का बतलाई कहै सुनै मे सरम लगत हौ, गान्‍ही जी
केहुक नांही चित्त ठेकाने बरम लगत हौ, गान्‍ही जी
अइसन तारू चटकल अबकी गरम लगत हौ, गान्‍ही जी
गाभिन हो कि ठांठ मरकहीं भरम लगत हौ, गान्‍ही जी

जे अललै बेइमान इहां ऊ डकरै किरिया खाला
लम्‍बा टीका, मधुरी बानी, पंच बनावल जाला
चाम सोहारी, काम सरौता, पेटैपेट घोटाला
एक्‍को करम न छूटल लेकिन, चउचक कंठी माला

नोना लगत भीत हौ सगरों गिरत परत हौ गान्‍ही जी
हाड़ परल हौ अंगनै अंगना, मार टरत हौ गान्‍ही जी
झगरा क' जर अनखुन खोजै जहां लहत हौ गान्‍ही जी
खसम मार के धूम धाम से गया करत हौ गान्‍ही जी

उहै अमीरी उहै गरीबी उहै जमाना अब्‍बौ हौ
कब्‍बौ गयल न जाई जड़ से रोग पुराना अब्‍बौ हौ
दूसर के कब्‍जा में आपन पानी दाना अब्‍बौ हौ
जहां खजाना रहल हमेसा उहै खजाना अब्‍बौ हौ

कथा कीर्तन बाहर, भीतर जुआ चलत हौ, गान्‍ही जी
माल गलत हौ दुई नंबर क, दाल गलत हौ, गान्‍ही जी
चाल गलत, चउपाल गलत, हर फाल गलत हौ, गान्‍ही जी
ताल गलत, हड़ताल गलत, पड़ताल गलत हौ, गान्‍ही जी

घूस पैरवी जोर सिफारिश झूठ नकल मक्‍कारी वाले
देखतै देखत चार दिन में भइलैं महल अटारी वाले
इनके आगे भकुआ जइसे फरसा अउर कुदारी वाले
देहलैं खून पसीना देहलैं तब्‍बौ बहिन मतारी वाले

तोहरै नाव बिकत हो सगरो मांस बिकत हौ गान्‍ही जी
ताली पीट रहल हौ दुनिया खूब हंसत हौ गान्‍ही जी
केहु कान भरत हौ केहू मूंग दरत हौ गान्‍ही जी
कहई के हौ सोर धोवाइल पाप फरत हौ गान्‍ही जी

जनता बदे जयंती बाबू नेता बदे निसाना हउवै
पिछला साल हवाला वाला अगिला साल बहाना हउवै
आजादी के माने खाली राजघाट तक जाना हउवै
साल भरे में एक बेर बस रघुपति राघव गाना हउवै

अइसन चढ़ल भवानी सीरे ना उतरत हौ गान्‍ही जी
आग लगत हौ, धुवां उठत हौ, नाक बजत हौ गान्‍ही जी
करिया अच्‍छर भंइस बराबर बेद लिखत हौ गान्‍ही जी
एक समय क' बागड़ बिल्‍ला आज भगत हौ गान्‍ही जी

कैलाश गौतम

ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल / अमीर खुसरो

ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल,
दुराये नैना बनाये बतियां |
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान,
न लेहो काहे लगाये छतियां ||

शबां-ए-हिजरां दरज़ चूं ज़ुल्फ़
वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह,
सखि पिया को जो मैं न देखूं
तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां ||

यकायक अज़ दिल, दो चश्म-ए-जादू
ब सद फ़रेबम बाबुर्द तस्कीं,
किसे पडी है जो जा सुनावे
पियारे पी को हमारी बतियां ||

चो शमा सोज़ान, चो ज़र्रा हैरान
हमेशा गिरयान, बे इश्क आं मेह |
न नींद नैना, ना अंग चैना
ना आप आवें, न भेजें पतियां ||

बहक्क-ए-रोज़े, विसाल-ए-दिलबर
कि दाद मारा, गरीब खुसरौ |
सपेट मन के, वराये राखूं
जो जाये पांव, पिया के खटियां ||

अमीर खुसरो

वो जिएँ क्या जिन्हें जीने का हुनर / सरूर

वो जिएँ क्या जिन्हें जीने का हुनर भी न मिला
दश्त में ख़ाक उड़ाते रहे घर भी न मिला

ख़स ओ ख़ाशाक से निस्बत थी तो होना था यही
ढूँडने निकले थे शोले को शरर भी न मिला

न पुरानों से निभी और न नए साथ चले
दिल उधर भी न मिला और इधर भी न मिला

धूप सी धूप में इक उम्र कटी है अपनी
दश्त ऐसा के जहाँ कोई शजर भी न मिला

कोई दोनों में कहीं रब्त निहाँ है शायद
बुत-कदा छूटा तो अल्लाह का घर भी न मिला

हाथ उट्ठे थे क़दम फिर भी बढ़ाया न गया
क्या तअज्जुब जो दुआओं में असर भी न मिला

बज़्म की बज़्म हुई रात के जादू का शिकार
कोई दिल-दादा-ए-अफ़सून-ए-सहर भी न मिला.

आले अहमद 'सरूर'

ज़ेहन ओ दिल के फ़ासले थे हम जिन्हें सहते रहे / इफ़्फ़त ज़रीन

ज़ेहन ओ दिल के फ़ासले थे हम जिन्हें सहते रहे
एक ही घर में बहुत से अजनबी रहते रहे

दूर तक साहिल पे दिल के आबलों का अक्स था
कश्तियाँ शोलों की दरिया मोम के बहते रहे

कैसे पहुँचे मंज़िलों तक वहशतों के क़ाफ़िले
हम सराबों से सफ़र की दास्ताँ कहते रहे

आने वाले मौसमों को ताज़गी मिलती गई
अपनी फ़स्ल-ए-आरज़ू को हम ख़िज़ाँ कहते रहे

कैसे मिट पाएँगी 'ज़र्रीं' ये हदें अफ़कार की
टूट कर दिल के किनारे दूर तक बहते रहे

इफ़्फ़त ज़रीन

प्रेम कविता / अंजू शर्मा

ये सच है
तमाम कोशिशों के बावजूद
कि मैंने नहीं लिखी है
एक भी प्रेम कविता

बस लिखा है
राशन के बिल के साथ
साथ बिताये
लम्हों का हिसाब,

लिखी हैं डायरी में
दवाइयों के साथ,
तमाम असहमतियों की
भी एक्सपायरी डेट

लिखे हैं कुछ मासूम झूठ
और कुछ सहमे हुए सच
एकाध बेईमानी
और बहुत सारे समझौते,

कब से कोशिश मैं हूँ
कि आंख बंद होते ही
सामने आये तुम्हारे चेहरे
से ध्यान हटा
लिख पाऊँ
मैं भी
एक अदद प्रेम कविता .............

अंजू शर्मा

अंदेशे / कैफ़ी आज़मी

रूह बेचैन है इक दिल की अज़ीयत क्या है
दिल ही शोला है तो ये सोज़-ए-मोहब्बत क्या है
वो मुझे भूल गई इसकी शिकायत क्या है
रंज तो ये है के रो-रो के भुलाया होगा

वो कहाँ और कहाँ काहिफ़-ए-ग़म सोज़िश-ए-जाँ
उस की रंगीन नज़र और नुक़ूश-ए-हिरमा
उस का एहसास-ए-लतीफ़ और शिकस्त-ए-अरमा
तानाज़न एक ज़माना नज़र आया होगा

झुक गई होगी जवाँ-साल उमंगों की जबीं
मिट गई होगी ललक डूब गया होगा यक़ीं
छा गया होगा धुआँ घूम गई होगी ज़मीं
अपने पहले ही घरोंदे को जो ढाया होगा

दिल ने ऐसे भी कुछ अफ़साने सुनाये होंगे
अश्क आँखों ने पिये और न बहाये होंगे
बन्द कमरे में जो ख़त मेरे जलाये होंगे
इक-इक हर्फ़ जबीं पर उभर आया होगा

उस ने घबरा के नज़र लाख बचाई होगी
मिट के इक नक़्श ने सौ शक़्ल दिखाई होगी
मेज़ से जब मेरी तस्वीर हटाई होगी
हर तरफ़ मुझ को तड़पता हुआ पाया होगा

बेमहल छेड़ पे जज़्बात उबल आये होंगे
ग़म पशेमा तबस्सुम में ढल आये होंगे
नाम पर मेरे जब आँसू निकल आये होंगे
सर न काँधे से सहेली के उठाया होगा

ज़ुल्फ़ ज़िद कर के किसी ने जो बनाई होगी
रूठे जलवों पे ख़िज़ाँ और भी छाई होगी
बर्क़ आँखों ने कई दिन न गिराई होगी
रंग चेहरे पे कई रोज़ न आया होगा

होके मजबूर मुझे उस ने भुलाया होगा
ज़हर चुप कर के दवा जान के ख़ाया होगा

कैफ़ी आज़मी

कठपुतली / उद्‌भ्रान्त

कठपुतली का खेल देखना
मेरे बचपन के दिनों का
सबसे प्रिय शगल था
डोर से बँधी हुई
कई कठपुतलियों को
खेल दिखानेवाला
हस्त-संचालन और
उँगली के इशारों से
यहाँ-वहाँ नचाता
कभी-कभी
एक कठपुतली
दूसरी को पकड़कर
धराशायी कर देती
और खूब पीटती
धमाधम धमाधम!
कभी प्यार करतीं वे
आपस में
शिद्दत से
और हम सभी बच्चे
देख उनका खेल यह
तालियाँ बजा-बजा
खूब होते प्रसन्न
तरह-तरह के
खेल होते कठपुतली के
और हम हैरत से
देखते हुए उन्हें
भर जाते
कई तरह की
भावनाओं से
उस समय
हमें लगता था ऐसा
जैसे वे जीवित हों
प्राणवंत होकर सारा
क्रिया-व्यापार कर रहीं!
और कुछ समय के बाद
कठपुतली वाले के इशारे पर
वे जब निष्प्राण हो जातीं तो
हम सब बच्चे
हो जाते मायूस
कठपुतली वाला
खेल खत्म कर
उस खेल के या
अपने हुनर के ऐवज में
प्राप्त करता जनता से पैसे और
खूब सराहना भी
बंद करता सारी कठपुतलियों को
झोले में और
सारे बच्चों को छोड़कर उदास
शीघ्र पुनः आने का
देते हुए आश्वासन
चला जाता
दूसरे मुहल्ले या नगर में
इसी भाँति अपनी
आजीविका चलाने के वास्ते!
खेल कठपुतली का
देखने वाले
समस्त बच्चे वे
बुजुर्ग हुए
जिंदगी का बड़ा हिस्सा
जी लिया उन्होंने जब
तब जाकर उन्हें यह प्रतीत हुआ
जीवनभर
खेल खेलते रहे वे
स्वयं भी
कठपुतली का!
हर कोई
दूसरे को
कठपुतली समझता था
जिसकी डोर
उसके ही हाथों में!
जबकि
सत्य यह था कि :
उनके हाथों में कभी

नहीं रही कोई डोर
नाचते रहे
वे सारे ही
बन कठपुतली औरों की!
नहीं समझ पाए वे कभी
जीवन के अंतिम क्षणों तक
कौन नचा रहा उन्हें?
राष्ट्र
या समाज
या
उन्हीं का आत्म?
अपने ही जीवन को
जीवन की तरह
कभी नहीं
जी सके वे!
नहीं समझ सके
यह रहस्य
कभी भी वे -
कि कठपुतली का
खेल दिखानेवाला
जीवन अपना ही
जी रहा था;
उसकी कठपुतलियों में
उसका हुनर
प्राण बनकर
होता संचालित था
और तब वह स्वयं भी
अपनी कठपुतलियों के हाथों की
बन जाता
कठपुतली!
दिनभर के
कठिन परिश्रम के बाद
वे कठपुतलियाँ फिर
बड़े प्यार से
अपने हाथों से
रोटियाँ खिलातीं उसे
बनकर जैसे उसकी
माँ ममतामयी और
छोटी बहन!
और तब
खेल दिखानेवाला
अपनी कठपुतलियों को
लाड़ में भर
देखते-निहारते
एक दिन
स्वयं
काठ हो जाता!
करते हुए सिद्ध
अपने आपको फिर
सचमुच की कठपुतली!
हैरत की बात-
उस समय उसके
सर्वोत्कृष्ट
ऐसे अद्भुत खेल पर भी
हृदयहीन दर्शकगण
नहीं बजाते ताली!
तितर-बितर हो जाते
मिट्टी में मिलाकर
उसकी जादुई आकर्षणयुक्त
सम्मोहक कला को
और
अपने-आपको
करने लगते तत्पर -
किसी दूसरे का खेल
देखने के वास्ते!

उद्‌भ्रान्त

मैं बीता कल हुआ तुम्हारा / अमित

यद्यपि मैंने जीवन हारा
मैं बीता कल हुआ तुम्हारा

घिरती हैं सुरमई घटायें
संध्या के कंधों पर फिर से
सरक गया आशा का सूरज
आशंकाओं भरे क्षितिज से
पूछ रहा अपने जीवन से
क्या इच्छित था यही किनारा?
मैं बीता कल हुआ तुम्हारा

मिला अयाचित जो धन उसके
रक्षण में सब शक्ति लगा दी
किन्तु चंचला ने यत्नों पर
मेरे, निज तूलिका चला दी
खड़ा अकिंचन सोच रहा हूँ
कहाँ गया संसार हमारा
मैं बीता कल हुआ तुम्हारा

छलना के दुर्धर्ष पाश में
बद्ध हो गया मन कुछ ऐसे
स्वत्व भूल कर मायाजल में
कूद गया मृगशावक जैसे
है विस्तृत मरुभूमि चतुर्दिक
घिरा चेतना पर अधियारा
मैं बीता कल हुआ तुम्हारा

आत्मवंचना के इस पथ पर
हो न जगत मेरा अनुगामी
यद्यपि मेरी सीख व्यर्थ है
मैं ही रहा न अपना स्वामी
जीवन था अनमोल किन्तु
गिर गया भूमि पर जैसे पारा
मैं बीता कल हुआ तुम्हारा

अमिताभ त्रिपाठी ‘अमित’

पिया मुख थे चूता शराब-ए-मनव्वर / क़ुली 'क़ुतुब' शाह

पिया मुख थे चूता शराब-ए-मनव्वर
पिला यक दो प्याले हमन साक़ी भर भर

मुंजे आ कोईलाँ की करसे ना तासीर
तेरे इश्क की आग का हूँ समंदर

बराहीम का क़िस्सा पांचिया है जग में
नको लियाओ भी कोई कहानी आज़र

इश्क के मिनारे ऊपर ज्यूँ व दिल सूँ
मानी कहे बाँग अल्लाहु अकबर

क़ुली 'क़ुतुब' शाह

सपनों की उधेड़बुन / ओम पुरोहित ‘कागद’

एक-एक कर
उधड़ गए
वे सारे सपने
जिन्हें बुना था
अपने ही ख़यालों में
मान कर अपने !

सपनों के लिए
चाहिए थी रात
हम ने देख डाले
खुली आँख
दिन में सपने
किया नहीं
हम ने इंतज़ार
सपनों वाली रात का
इसलिए
हमारे सपनों का
एक सिरा
रह जाता था
कभी रात के
कभी दिन के हाथ में
जिस का भी
चल गया ज़ोर
वही उधेड़ता रहा
हमारे सपने !

अब तो
कतराने लगे हैं
झपकती आँख
और
सपनों की उधेड़बुन से !

ओम पुरोहित ‘कागद’

आके क़ासिद ने कहा जो, वही अक्सर निकला / आरज़ू लखनवी

आके क़ासिद ने कहा जो, वही अकसर निकला।
नामाबर समझे थे हम, वह तो पयम्बर निकला॥

बाएगु़रबत कि हुई जिसके लिए खाना-खराब।
सुनके आवाज़ भी घर से न वह बाहर निकला॥

आरज़ू लखनवी

तेरे बदन की धूप से महरूम कब हुआ / अशअर नजमी

तेरे बदन की धूप से महरूम कब हुआ
लेकिन ये इस्तिआरा भी मंजूम कब हुआ

वाक़िफ़ कहाँ थे रात की सरगोशियों से हम
बिस्तर की सिलवटों से भी मालूम कब हुआ

शाख़-बदन से सारे परिंदे तो उड़ गए
सज्दा तेरे ख़याल का मक़्सूम कब हुआ

सुनसान जंगलों में है मौजूदगी की लौ
लेकिन वो एक रास्ता मादूम कब हुआ

निस्बत मुझे कहाँ रही असर-ए-ज़वाल से
मेरा वजूद सल्तनत-ए-रूम से कब हुआ

अशअर नजमी

Tuesday, November 26, 2013

घर-6 / अरुण देव

कठफोड़वा ले आई काठ
खट-खट-खट की आवाज़ से भर उठा वह अधबना घर

बनाई उसने चौखट
खिड़कियाँ, दरवाज़े, रोशनदान कि सुबह-सुबह आए सूरज
कि आए हवा
कि दिन और रात..आएँ

अरुण देव

ख़्वाब आँखों से ज़बाँ से हर कहानी ले गया / इफ़्फ़त ज़रीन

ख़्वाब आँखों से ज़बाँ से हर कहानी ले गया
मुख़्तसर ये है वो मेरी ज़िंदगानी ले गया

फूल से मौसम की बरसातें हवाओं की महक
अब के मौसम की वो सब शामें सुहानी ले गया

दे गया मुझ को सराबों का सुकूत-ए-मुस्तक़िल
मेरे अश्कों से वो दरिया की रवानी ले गया

ख़ाक अब उड़ने लगी मैदान सहरा हो गए
रेत का तूफ़ान दरियाओं से पानी ले गया

कौन पहचानेगा 'ज़र्रीं' मुझ को इतनी भीड़ में
मेरे चेहरे से वो अपनी हर निशानी ले गया

इफ़्फ़त ज़रीन

लबों पे नर्म तबस्सुम / अहमद नदीम क़ासमी

लबों पे नर्म तबस्सुम रचा कि धुल जाएँ
ख़ुदा करे मेरे आंसू किसी के काम आएँ

जो इब्तदा-ए-सफ़र में दिए बुझा बैठे
वो बदनसीब किसी का सुराग़ क्या पाएँ

तलाश-ए-हुस्न कहाँ ले चली ख़ुदा जाने
उमंग थी कि फ़क़त जि़न्दगी को अपनाएँ

बुला रहे है उफ़क़ पर जो ज़र्द-रू टीले
कहो तो हम भी फ़साने के राज़ हो जाएँ

न कर ख़ुदा के लिए बार-बार जि़क्र-ए-बहिश्त
हम आस्माँ का मुकरर्र फ़रेब क्यों खाएँ

तमाम मयकदा सुनसान मयगुसार उदास
लबों को खोल कर कुछ सोचती हैं मीनाएँ

अहमद नदीम क़ासमी

इस वास्ते दामन चाक किया शायद ये जुनूँ काम आ जाए / अनवर मिर्जापुरी

इस वास्ते दामन चाक किया शायद ये जुनूँ काम आ जाए
दीवाना समझ कर ही उन के होंटों पे मेरा नाम आ जाए

मैं ख़ुश हूँ अगर गुलशन के लिए कुछ लहू काम आ जाए
लेकिन मुझ को डर है इस गुल-चीं पे न इल्ज़ाम आ जाए

ऐ काश हमारी क़िस्मत में ऐसी भी कोई शाम आ जाए
इक चाँद फलक पर निकला हो इक चाँद सर-ए-शाम आ जाए

मय-ख़ाना सलामत रह जाए इस की तो किसी को फ़िक्र नहीं
मय-ख़्वार हैं बस इस ख़्वाहिश में साक़ी पे कुछ इल्ज़ाम आ जाए

पीने का सलीका कुछ भी नहीं इस पर है ये ख़्वाहिश है रिंदों की
जिस जाम पे हक़ है साकी का हाथों में वही जाम आ जाए

इस वास्ते ख़ाक-ए-परवाना पर शमा बहाती है आँसू
मुमकिन है वफ़ा के क़िस्से में उस का भी कहीं नाम आ जाए

अफ़्साना मुकम्मल है लेकिन अफ़्साने का उनवाँ कुछ भी नहीं
ऐ मौत बस इतनी मोहलत दे उन का कोई पैग़ाम आ जाए

अनवर मिर्जापुरी

नेतागीरी अफ़सरशाही / कैलाश गौतम

जैसी नेतागिरी है जी वैसी अफ़सरशाही है
सिर्फ झूठ की पैठ सदन में सच के लिए मनाही है
चारों ओर तबाही भइया
चारों ओर तबाही है ।

संविधान की ऐसी-तैसी करनेवाला नायक है
बलात्कार अपहरण डकैती सबमें दक्ष विधायक है
चोर वहाँ का राजा है
सहयोगी जहाँ सिपाही है ।

जो कपास की खेती करता उसके पास लँगोटी है
उतना महँगा ज़हर नहीं है जितनी महँगी रोटी है
लाखों टन सड़ता अनाज है
किसकी लापरवाही है ।

पैरों की जूती है जनता, जनता की परवाह नहीं
जनता भी क्या करे बिचारी, उसके आगे राह नहीं
बेटा है बेकार पड़ा है
बिटिया है अनब्याही है ।

जैसी होती है तैय्यारी वैसी ही तैय्यारी है
तैय्यारी से लगता है जल्दी चुनाव की बारी है
संतो में मुल्लाओं में
भक्तों की आवाजाही है ।

कैलाश गौतम

बंधक सुबहें / अजय पाठक

बंधक सुबहें
गिरवी अपनी
साँझ दुपहरी है ।

बड़ी देर तक रात व्यथा से
कर सोये संवाद,
रोटी की चिंता ने छीना
प्रातः का अवसाद,
भूख मीत है जिससे
अपनी छनती गहरी है ।

रक़म सैकड़ा लिया कभी था
की उसकी भरपाई,
सात महीने किया मज़ूरी
तब जाकर हो पाई,
कुछ बोलें तो अपने हिस्से
कोर्ट कचहरी है ।

टूटी मड़ई जिसको अपना
घर कह लेते हैं,
किसी तरह कुछ ओढ़-बिछाकर
हम रह लेते हैं,
जीवन जैसे टूटी-फूटी
एक मसहरी है ।

मालिक लोगों के कहने पर
देते रहे अँगूठा,
वक़्त पड़ा तो हम ही साबित
हो जाते हैं झूठा,
निरर्थक है फ़रियाद
व्यवस्था अंधी-बहरी है ।

अजय पाठक

बरसो मेघ / कैलाश गौतम

बरसो मेघ और जल बरसो, इतना बरसो तुम,
जितने में मौसम लहराए, उतना बरसो तुम,

बरसो प्यारे धान-पान में, बरसों आँगन में,
फूला नहीं समाए सावन, मन के दर्पण में

खेतों में सारस का जोड़ा उतरा नहीं अभी,
वीर बहूटी का भी डोला गुज़रा नहीं अभी,

पानी में माटी में कोई तलवा नहीं सड़ा,
और साल की तरह न अब तक धानी रंग चढ़ा,

मेरी तरह मेघ क्या तुम भी टूटे हारे हो,
इतने अच्छे मौसम में भी एक किनारे हो,

मौसम से मेरे कुल का संबंध पुराना है,
मरा नहीं हैं राग प्राण में, बारह आना है,

इतना करना मेरा बारह आना बना रहे,
अम्मा की पूजा में ताल मखाना बना रहे,

देह न उघड़े महँगाई में लाज बचानी है,
छूट न जाए दुख में सुख की प्रथा पुरानी है,

सोच रहा परदेसी, कितनी लम्बी दूरी है,
तीज के मुँह पर बार-बार बौछार ज़रूरी है,

काश ! आज यह आर-पार की दूरी भर जाती,
छू जाती हरियाली, सूनी घाटी भर जाती,

जोड़ा ताल नहाने कब तक उत्सव आएँगे,
गाएँगे, भागवत रास के स्वांग रचाएँगे,

मेरे भीतर भी ऐसा विश्वास जगाओ ना
छम-छम और छमाछम बादल-राग सुनाओ ना

कैलाश गौतम

आम मशरिक़ के मुसलमानों का दिल मगरिब में जा अटका है / इक़बाल

आम मशरिक़ के मुसलमानों का दिल मगरिब में जा अटका है
वहाँ कुंतर सब बिल्लोरी है, यहाँ एक पुराना मटका है

इस दौर में सब मिट जायेंगे, हाँ बाक़ी वो रह जायेगा
जो क़ायम अपनी राह पे है, और पक्का अपनी हट का हे

अए शैख़-ओ-ब्रह्मन सुनते हो क्या अह्ल-ए-बसीरत कहते हैं
गर्दों ने कितनी बुलंदी से उन क़ौमों को दे पटका है

अल्लामा इक़बाल

उदास बैठा दिए ज़ख़्म के जलाए हुए / आतीक़ अंज़र

उदास बैठा दिए ज़ख़्म के जलाए हुए
उन्हें मैं सोच रहा हूँ जो अब पराए हुए

मुझे ने छोड़ अकेला जुनूँ के सहरा में
कि रास्ते ये तिरे ही तो हैं दिखाए हुए

घिरा हुआ हूँ मैं कब से जज़ीरा-ए-ग़म में
ज़माना गुज़रा समुंदर में मौज आए हुए

कभी जो नाम लिखा था गुलों पे शबनम से
वो आज दिल में मिरे आग है लगाए हुए

ज़माना फूल बिछाता था मेरी राहों में
जो वक़्त बदला तो पत्थर है अब उठाए हुए

हया का रंग वही उन का मेरे ख़्वाब में भी
दबाए दाँतों में उँगली नज़र झुकाए हुए

मैं तुम से तर्क-ए-तअल्लुक की बात क्यूँ सोचूँ
जुदा न जिस्मों से ‘अनज़र’ कभी भी साए हुए

आतीक़ अंज़र

सदियों तवील रात के ज़ानूँ से सर उठा / 'क़ैसर'-उल जाफ़री

सदियों तवील रात के ज़ानूँ से सर उठा
सूरज उफुक से झाँक रहा है नज़र उठा

इतनी बुरी नहीं है खंडर की ज़मीन भी
इस ढेर को समेट नए बाम ओ दर उठा

मुमकिन है कोई हाथ समुंदर लपेट दे
कश्ती में सौ शिगाफ हों लंगर मगर उठा

शाख़-ए-चमन में आग लगा कर गया था क्यूँ
अब ये अज़ाब-ए-दर-बदरी उम्र भर उठा

मंज़िल पे आ के देख रहा हूँ मैं आइना
कितना गुबार था जो सर-ए-हर-गुज़र उठा

सहरा में थोड़ी देर ठहरना गलत न था
ले गर्द-बाद बैठ गया अब तो सर उठा

दस्तक में कोई दर्द की खुश-बू जरूर थी
दरवाज़ा खोलने के लिए घर का घर उठा

‘कैसर’ मता-ए-दिल का खरीदार कौन है
बाज़ार उजड़ गया है दुकान-ए-हुनर उठा

'क़ैसर'-उल जाफ़री

चुप किया जाना एक सजा है तुम्हारी खातिर / कुमार मुकुल

चुप किया जाना
एक सजा है तुम्हारी खातिर

जबान और हाथों को जब
रोक दिया जाता है
शालीन अश्लीलता से
तो असंतोष की किरणें
फूटने लगती हैं
तुम्हारी निगाहों से
और कई बार
उसकी मार तुम
अपने भीतर मोड देती हो

तब
तुम्हा-रे मुकाबिल होना
एक सजा हो जाता है
मेरे लिये

एक सजा
जिसे पाना
अपनी खुशकिस्मती समझता हूं मैं

मेरी कुटुबुटु
कि
हमारा रिश्ता ही दर्द का है
जिसकी टीस को
जब संभाल लेती है मेरी कविता
तब कविता का महान व्यापार
कर पाती है वह
तब
देख पाता हूं
जान पाता हूं मैं
अपने कवि होने की बुनियाद।

कुमार मुकुल

निगाह-ए-लुत्फ़ क्या कम हो गई है / अलीम 'अख्तर'

निगाह-ए-लुत्फ़ क्या कम हो गई है
मोहब्बत और महकम हो गई है

तबीअत कुश्त-ए-ग़म हो गई है
चराग़-ए-बज़्म-ए-मातम हो गई है

मआल-ए-ज़ब्त-ए-पैहम हो गई है
मुसर्रत हासिल-ए-ग़म हो गई है

तमन्ना जब बढ़ी है अपनी हद से
तो मायूसी का आलम हो गई है

न जाने क्यूँ अदावत ही अदावत है
सरिश्त-ए-इब्न-ए-आदम हो गई है

है महव-ए-रक़्स हर बर्ग-ए-चमन पर
बड़ी बे-बाक शबनम हो गई है

हँसी होंटों पर आते आते 'अख़्तर'
पयाम-ए-गिर्य-ए-ग़म हो गई है

अलीम 'अख्तर'

कंचन मनि मरकत रस ओपी / कृष्णदास

कंचन मनि मरकत रस ओपी।
नन्द सुवन के संगम सुखकर अधिक विराजति गोपी।।
मनहुँ विधाता गिरिधर पिय हित सुरतधुजा सुख रोपी।
बदनकांति कै सुन री भामिनी! सघन चन्दश्री लोपी।।
प्राणनाथ के चित चोरन को भौंह भुजंगम कोपी।
कृष्णदास स्वामी बस कीन्हे,प्रेम पुंज को चोपी।।

कृष्णदास

वेंटिलेशन / अरविन्द श्रीवास्तव

चिड़ियाँ बतिया रही थी
कि हमारे हँसी-खुशी के सुकोमल दिन
ख़त्म हो चले है

जी घबरा रहा है
इस सदी को देख कर
इस बीच हमारे कई परिजनों ने
धरती से अपना रिश्ता
तोड़ दिया है

हमारे लिए यह धरती
अब नहीं रह गयी निरापद

चिड़िया बतिया रही थी
बगैर किसी तामझाम के
बगैर किसी घोषणा-पत्र के

जीने की इस उम्मीद के साथ
कि बड़ी-बड़ी इमारतों में भी
रखी जाए
कम से कम
एक वेंटिलेशन !

अरविन्द श्रीवास्तव

झूम कर बदली उठी और छा गई / 'अख्तर' शीरानी

झूम कर बदली उठी और छा गई
सारी दुनिया पर जवानी आ गई

आह वो उस की निगाह-ए-मय-फ़रोश
जब भी उट्ठी मस्तियाँ बरसा गई

गेसू-ए-मुश्कीं में वो रू-ए-हसीं
अब्र में बिजली सी इक लहरा गई

आलम-ए-मस्ती की तौबा अल-अमाँ
पारसाई नश्शा बन कर छा गई

आह उस की बे-नियाज़ी की नज़र
आरज़ू क्या फूल सी कुम्हला गई

साज़-ए-दिल को गुदगुदाया इश्क़ ने
मौत को ले कर जवानी आ गई

पारसाई की जवाँ-मर्गी न पूछ
तौबा करनी थी के बदली छा गई

'अख़्तर' उस जान-ए-तमन्ना की अदा
जब कभी याद आ गई तड़पा गई

'अख्तर' शीरानी

हाण्डी / उद्‌भ्रान्त

 चूल्हे पर चढ़ी है हाण्डी
हाण्डी में पक रहा है एक चावल
खदबद
खदबद
खेत हैं उजड़े
उनमें दरारें जहाँ बड़ी-बड़ी
कुदरत का काला रंग
करता सूखी मिट्टी का शॄंगार
कुछ ऐसे कि बनता है
एक विराट मानचित्र काली हाण्डी का
जिसमें से निकल-निकल भागती है भूख
अपने हाण्डीनुमा घरों को छोड़कर
और बिकने के लिए एक मुट्ठी चावल पर
उसे जनमने वाली माता योनि द्वारा
हाण्डी का चावल
पक रहा है
खदबद खदबद
और उस एक चावल की सुगन्ध
उस काले आदिवासी को
कर रही नियन्त्रित
खाने को पेड़ की छाल
और आम की सड़ी गुठली
और अपने ही जाए बच्चे को करने
खुले आम नीलाम !
उड़ीसा के चूल्हे पर
रक्खी काली हाँडी से
उड़ी साहबजादी
अपने रंगीन पंखों के साथ
काल को बदलते हुए
चौबीसों घण्टे और
बारहों महीने के
अन्यायी काल
याकि अकाल में;
और आसमान में उड़ते
हेलिकॉप्टर और हवाई जहाज़
लेते हैं शक़्ल
चीलों और गिद्धों की जबकि --
मज़े से पक रहा है
एक किनकी चावल का
इस विराट हाण्डी में
भूख के सुलगते चूल्हे पर
खदबद
खदबद

उद्‌भ्रान्त

सच्चा प्रेम / उमेश चौहान

प्रेम का दीप शाश्वत जगमगाता है हृदय के कोटर में
बाहर कितना ही अन्धकार फैला हो निराशा का

सच्चा प्रेम भूखा नहीं होता प्रत्यानुराग का
सच्चा प्रेम विकल भी नहीं होता प्रकट होने के लिए

विषम परिस्थितियों में प्रेम निःशब्द छुपा रहता है
हृदय के भाव-संसार में
किसी अनकही कविता की उद्विग्न पंक्तियों की तरह

सच्चा प्रेम समेटे रहता है
अपनी सारी मादकता व सृजनात्मकता भीतर ही
खिलने को बेताब किसी फूल की कोमल कली की तरह

सच्चे प्रेम को दरकार नहीं होती
प्रस्फुटन की प्रतीक्षा के पूर्ण होने की
वह संतुष्ट रहता है गूलर की कलियों की तरह
देह के भीतर ही भीतर खिलकर भी

यह ज़रूरी नहीं होता कि प्रेम
दीवानगी का पर्याय बनकर सरेआम संगसार ही हो
वह सारे आघात मन ही मन सहता हुआ
अनुराग की प्रतिष्ठा की वेदी पर
प्रायः अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देता है

सच्चा प्रेमी वही होता है जो अपने सारे विषाद को भीतर ही भीतर पचाकर
नीलकंठ की भाँति इस दुनिया में सबके लिए एक कतरा मुस्कान बाँटता फिरता है ।

उमेश चौहान

हवा के पर कतरना अब ज़रूरी हो गया है / ख़ुशबीर सिंह 'शाद'

हवा के पर कतरना अब ज़रूरी हो गया है
मेरा परवाज़ भरना अब ज़रूरी हो गया है

मेरे अंदर कई एहसास पत्थर हो रहे हैं
ये शीराज़ा बिखरना अब ज़रूरी हो गया है

मैं अक्सर ज़िंदगी के उन मराहिल से भी गुज़रा
जहाँ लगता था मरना अब ज़रूरी हो गया है

मेरी ख़ामोशियाँ अब मुझ पे हावी हो रही हैं
के खुल कर बात करना अब ज़रूरी हो गया है

बुलंदी भी नशेबों की तरह लगने लगी है
बुलंदी से उतरना अब ज़रूरी हो गया है

मैं इस यक-रंगी-ए-हालात से उकता चुका हूँ
हक़ीक़त से मुकरना अब ज़रूरी हो गया है

मेरी आँखें बहुत वीरान होती जा रही हैं
ख़ला में रंग भरना अब ज़रूरी हो गया है

ख़ुशबीर सिंह 'शाद'

हम और रस्सियाँ / अशोक भाटिया

जब से मैं ज़मीन तोड़कर
उठना शुरू हुआ हूँ ज़मीन पर
मैंने अपने और सबके इर्द–गिर्द
रस्सियों का उलझा हुआ जाल
बुना हुआ पाया है
रस्सियाँ कुछ हर जगह हैं
रस्सियाँ कुछ कहीं–कहीं हैं
रस्सियाँ नई, पुरानी, सख़्त, मुलायम
रस्सियाँ मज़बूत और ढीली

आदमी को बाँध लेती हैं
कुछ रस्सियाँ
आदमी ख़ुद बँधता है
कुछ रस्सियों से
और इन सबके बीच
वह उठने लगता है
तन जाता है शामियाने की तरह

ज़मीन और आदमी को
जोड़ती हैं रस्सियाँ
तो क्या आदमी की नियति यही है
कि वह कस जाए
यों कसता जाए
आसपास फैली हुई रस्सियों के बीच
सिर्फ़ कसा–तना शामियाना कुछ नहीं है
रस्सियाँ ढीली पड़ जाएँगी
रस्सियाँ टूट जाएँगी
रस्सियाँ खुल जाएँगी
रस्सियाँ तोड़ दी जाएँगी
रस्सियाँ नहीं हैं सब कुछ
यह शामियाने और रस्सियों का
संबंध ही सब कुछ है
सिर्फ़ कसा–तना शामियाना कुछ नहीं है
इतिहास इसे देखकर चल देगा आगे
वह तो यह देखेगा
कि किन रस्सियों की गाँठ
स्वीकार लीं तुमने
या धिक्कार दीं तुमने

अशोक भाटिया

Monday, November 25, 2013

दंगा / कुमार अनुपम

बर्बरता का ऐतिहासिक पुनर्पाठ
आस्था की प्रतियोगिता
कट्टरता का परीक्षण काल था
 
यह
धार्मिकता का
सुपीरियारिटी सत्यापन था
 
फासिस्ट गर्व और भय
की हीनता का उन्माद था
 
यह
जातिधारकों
के निठल्लेपन का पश्चात्ताप था
 
यह
अकेलों के एकताबाजी प्रदर्शन
का भ्रमित घमंड था
 
कुंठाओं को शांत करने
के प्रार्थित मौके की लूट
 
मनुष्यता के खिलाफ
मनुष्यों की अमानुषिक स्थापना
 
धर्मप्रतिष्ठा के लिए
एक अधार्मिक प्रायोजन था
 
यह
व्यवस्था संरक्षक
के नपुंसक नियंत्रण
का तानाशाही साक्ष्य था
 
सभ्यता के कत्ल
की व्यग्र बेकरारी
का कर्मकांड था यह
हमारे समय में
जिसे मनाया जा रहा समारोह की तरह
जगह जगह

कुमार अनुपम

अजनबी अपना ही साया हो गया है / कविता किरण

अजनबी अपना ही साया हो गया है
खून अपना ही पराया हो गया है

मांगता है फूल डाली से हिसाब
मुझपे क्या तेरा बकाया हो गया है

बीज बरगद में हुआ तब्दील तो
सेर भी बढ़कर सवाया हो गया है

बूँद ने सागर को शर्मिंदा किया
फिर धरा का सृजन जाया हो गया है

बात घर की घर में थी अब तक 'किरण'
राज़ अब जग पर नुमायाँ हो गया है

कविता "किरण"

पोशीदा क्यूं है तूर पे जलवा दिखा के देख / 'असअद' बदायुनी

पोशीदा क्यूं है तूर पे जलवा दिखा के देख
ऐ दोस्त मेरी ताब-ए-नज़र आज़मा के देख

फूलों की ताज़गी ही नहीं देखने की चीज़
कांटों की सिम्त भी तो निगाहें उठा के देख

लेता नहीं किसी का पस-ए-मर्ग कोई नाम
दुनिया को देखना है तो दुनिया से जा के देख

दिल में हमारे दर्द ज़माने का है निहां
पैवस्त दिल में सैकड़ों पैकां जफ़ा के देख

जो बादा-ख़्वार-ए-ग़म हैं उन्हें भी कभी कभी
साक़ी शराब-ए-हुस्न के साग़र पिला के देख

बन जाएगा कभी न कभी दर्द ही दवा
असद के दिल में दर्द की शिद्दत बढ़ा के देख

'असअद' बदायुनी

तस्वीरें / ”काज़िम” जरवली

सोचता हूँ कि किससे बात करूँ.
सामने हैं हज़ार तस्वीरें ।

मुतमईन कुछ है अपने चेहरों से,
और कुछ बेकरार तसवीरें. ।। -- काज़िम जरवली

काज़िम जरवली

अजनबी / अशोक कुमार पाण्डेय

पता नहीं आप आधुनिक कहेंगे
उत्तर आधुनिक या कि कुछ और इस समय को
जब विकास-दरों के निर्गुण पैमाने पर नापी जा रही है ख़ुशी
ख़ुदकुशी शामिल नहीं है दुख के सूचकांकों में
और हत्या अमूर्त-चित्रों की तरह
अपने-अपने तरीके से की जा रही है व्याख्यायित
टी०वी० के पर्दों से छन-छन कर
हमारे बीच के निर्वातों पर
किसी रंगहीन विषैली गैस से कब्ज़ा जमाते इस समय में
किसी अपरिचित-सी आकाशगंगा के चित्रों का भयावह कोलाज
झाँकता है किसी डरावनी फ़िल्म के आदमक़द पोस्टर की तरह
जहाँ तमाम विकृत मुद्राओं के बीच
सिर्फ़ जुगुप्सा जगाते हैं हास्य और नृत्य के दृश्य
हँसो तो गों-गों करके रह जाती है आवाज़
नाचो तो ताण्डव की आवृति में कसमसाते हैं पाँव
कौन सी दुनिया है यह?
कौन से युग का कौन सा चरण?
किस विश्वविद्यालय में बना था इसका ब्लूप्रिण्ट?
किस संसद में तय की गई इसकी नियमावली?
कवियों की तो ख़ैर बिसात ही क्या रही अब
पर किन नायकों ने गढ़े ऐसे आदर्श
कि कुछ भी नहीं बचा आश्चर्यजनक-असंभाव्य
कुछ भी हो सकता है किसी भी शब्द का अभिप्राय
किसी भी आस्तीन पर हो सकता है किसी का भी लहू
इस समय के पराजित युद्धबंदी
कुटिन मुस्कान वाले तानाशाह के शरणार्थी शिविरों-सी
अलक्षित अरक्षित बस्तियों में रह रहे जो
बाल-विधवा बुआ-सा रहता ही है दुख उनके साथ स्थाई
फुटपाथ पर हों तो कुचल जाता है कोई सितारा
झोपड़ों से कोई निठारी चुपचाप उठा ले जाता भविष्य
खेतों में पता ही नहीं चलता कब निगल जाती ज़मीन
ख़ुशी-ख़ुदकशी-हत्या-हादसा सब
जैसे हिस्सा रोज़मर्रा की ज़िंदगी का
किसी को नहीं पड़ता फ़र्क

पर
समय के विजय-स्तम्भों से
ख़ुशी से लिपे-पुते से आलीशान मकानों में भी
जहाँ हवा तक नहीं आ सकती बेरोकटोक
पता नहीं किन वातायनों से चला आता है
अंधड़ों की धूल-सा धूसर दुख
और बिखर जाता है दूध से धवल फर्श पर
आश्चर्य-तब भी नहीं पड़ता कोई फ़र्क !
सिर्फ़ थोड़ा और उदास हो जाता है कवि
और उँगलियों से कुरेदता हुआ राख
पूछता है ख़ुद से ही शायद
कौन सा समय यह
कि जिसमें ज़िंदगी की सारी कशमकश
बस, मौत के बहाने ढूँढने के लिए...

अशोक कुमार पाण्डेय

मोटी पत्नी / काका हाथरसी

ढाई मन से कम नहीं, तौल सके तो तौल
किसी-किसी के भाग्य में, लिखी ठौस फ़ुटबौल
लिखी ठौस फ़ुटबौल, न करती घर का धंधा
आठ बज गये किंतु पलंग पर पड़ा पुलंदा
कहँ ‘ काका ' कविराय , खाय वह ठूँसमठूँसा
यदि ऊपर गिर पड़े, बना दे पति का भूसा

काका हाथरसी

साग़र से लब लगा के बहुत ख़ुश है ज़िन्दगी / अब्दुल हमीद 'अदम'

साग़र से लब लगा के बहुत ख़ुश है ज़िन्दगी
सहन-ए-चमन में आके बहुत ख़ुश है ज़िन्दगी

आ जाओ और भी ज़रा नज़दीक जान-ए-मन
तुम को क़रीब पाके बहुत ख़ुश है ज़िन्दगी

होता कोई महल भी तो क्या पूछते हो फिर
बे-वजह मुस्कुरा के बहुत ख़ुश है ज़िन्दगी

साहिल पे भी तो इतनी शगुफ़ता रविश न थी
तूफ़ाँ के बीच आके बहुत ख़ुश है ज़िन्दगी

वीरान दिल है और 'अदम' ज़िन्दगी का रक़्स
जंगल में घर बनाके बहुत ख़ुश है ज़िन्दगी

अब्दुल हमीद 'अदम'

हमने तुमको ओ साथी पुकारा बहुत / कुमार अनिल

हमने तुमको ओ साथी पुकारा बहुत,
मुड़ के तुमने ही एक बार देखा नहीं
चौंधियाए रहे रूप की धूप से
और ह्रदय में बसा प्यार देखा नहीं ।

क्या बताऊँ कि कल रात को किस तरह
चाँद तारे मेरे साथ जगते रहे
जाने कब तुम चले आओ ये सोच कर
खिड़की दरवाज़े सब राह तकते रहे

महलों- महलों मगर तुम भटकते रहे
इस कुटी का खुला द्वार देखा नहीं

कल की रजनी पपीहा भी सोया नहीं
पी कहाँ-पी कहाँ वो भी गाता रहा
एक झोंका हवा का किसी खोज में
द्वार हर एक का खटखटाता रहा

स्वप्न माला मगर गूँथते तुम रहे
फूल का सूखता हार देखा नहीं

फूल से प्यार करना है अच्छा मगर
प्यार की शूल को ही अधिक चाह है
अहमियत मंज़िलों की उन्ही के लिए
जिनके बढ़ने को आगे नहीं राह है

बिन चले मंज़िलें तुमको मिलती रहीं
तुमने राहों का विस्तार देखा नहीं

हमने तुमको ओ साथी पुकारा बहुत
मुड़ के तुमने ही एक बार देखा नहीं .

कुमार अनिल

ज़िंदगी अहसास का नाम है / अंजना संधीर

याद आते हैं
गर्मियों में उड़ते हुए रेत के कण
हवा चलते ही अचानक उड़कर, पड़ते थे आँख में
और कस के बंद हो जाती थी
अपने आप आँखें
पहुँच जाते थे हाथ अपने आप आँखों पर
धूल से आँखों को बचाने के लिए
कभी पड़ जाता था कोई कण
तो चुभने लगता था आँख में, बहने लगता था पानी
हो जाती थी लाल आँखें मसलने से
कभी फूँक मार, कभी कपड़े को अँगुली से लगा देखता था कोई
खोल कर आँखें
करता था चेष्टा आँख में पड़े कणों को बाहर निकालने की
लेकिन यहाँ
जब सूखी बर्फ़ के कण
उड़ते हैं सफ़ेद ढ़ेरों से
चमकती धूप में, सर्दी की चिलचिलाती लहर के साथ
और पड़ते हैं आँख में
तो आँख क्षणभर के लिए बंद हो जाती हैं
ठीक वैसे ही अपने आप
मगर. . .मगर किसी ठंडक का अहसास
भर देते हैं आँख में
चुभते नहीं हैं ये कण
हिमपात की समाप्ति पर रुई के ढ़ेरों या नमक के मैदानों में
बदल जाने और जम कर बर्फ़ बनने से पहले
उड़ती है रेत की तरह जो बर्फ़
पड़ती है कपड़ों पर, आँखों में
तब हाथ तो उठते हैं
आँखों को बचाने, बंद भी होती हैं आँखें अपने आप
पड़ भी जाते हैं बर्फ़ के कण
तो ठंडक देकर बन जाते हैं पानी
आँखें तो आँखें होती हैं
उन्हें रेत भी चुभती है
बर्फ़ के कण भी चुभते हैं क्षण भर के लिए
हो जाती हैं कस कर बंद
तब याद आते हैं
रेत के कणों के साथ जुड़े
अपने वतन के
कितने ही स्पर्श
जो भर देते हैं अहसास का आग
इस ठंडे देश में
ज़िंदा रहने के लिए
ज़िंदगी अहसास का ही तो नाम है।

अंजना संधीर

आज भी वहीं खड़ा उद्दीप्त / अमित

आज भी वहीं खड़ा उद्दीप्त
विश्वधारा में मैं निरुपाय
खोजता हूँ बस एक आलम्ब
यजन करने का तुच्छ उपाय

निशा है आज हुई शशि-मुक्त
किरण भी आशा की है लुप्त
जानता होगा विश्वाधार
जीव फिर क्यों शरीर से युक्त

संकलित है स्मृति अवशेष
भग्न उस रेत-भीति के चिह्न
जिसे देने को नूतन रूप
हो गये थे दो पथिक अभिन्न

जीव का प्रेम जीव से किन्तु
शरीरों का कैसा भ्रम जाल
रहा करता जल सागर मध्य
हो सका क्या जलगत पाताल

हवा गति हेतु चाहती दाब
नदी को नीचे तल की चाह
किन्तु भौतिक नियमों से दूर
भावनाओं का अतुल प्रवाह

जिसे पाने में लगते वर्ष
बीत जाते कितने मधुमास
वही क्षण रुकते यदि पल चार
न हटता मन से निज विश्वास

हो गई उषा भी तमलिप्त
खो गया उसका भी अभिमान
क्षितिज के बीच बैठती कभी
पहनकर कुछ अरुणिम परिधान

इन्दु ने अपनी किरण समेट
समय से पूर्व किया प्रस्थान
साथ देने तारा-नक्षत्र
हो गये हैं सब अन्तर्ध्यान

इस अंधेरे में किसी के नाम का दीपक जलाये
ढूँढता बिछड़े स्वजन को भूल वो इस राह आये
भूल वो इस राह आये।

अमिताभ त्रिपाठी ‘अमित’

एक कविता मृत्यु के नाम / कुमार अनिल

मृत्यु तू आना
तेरा स्वागत करूँगा

किन्तु मत आना
कि जैसे कोई बिल्ली
एक कबूतर की तरफ़
चुपचाप आती
फिर झपट्टा मारती है यकबयक ही
तोड़ गर्दन
नोच लेती पंख
पीती रक्त उसका

मृत्यु तुझको
आना ही अगर है पास मेरे
तो ऐसे आना
जैसे एक ममतामयी माँ
अपने किसी
बीमार सुत के पास आए
और अपनी गोद में
सिर रख के उसका
स्नेह से देखे उसे
कुछ मुस्कुरा कर
फिर हथेली में
जगत का प्यार भर कर
धीरे से सहलाए उसका तप्त मस्तक
थपथपा कर पीर
कर दे शांत उसकी
और मीठी नींद में
उसको सुला दे

मृत्यु !
स्वागत है तेरा
जब चाहे आना

किन्तु मत आना
कि आता चोर जैसे
और ले जाता
उमर भर क़ी कमाई
तू दबे पाँव ही आना चाहती है
तो ऐसे आना
जैसे कोई भोला बच्चा
आके पीछे से अचानक
दूसरे की
अपने कोमल हाथ से
बंद आँख कर ले
और फिर पूछे
बताओ कौन हूँ मैं ?

तू ही बता
वह क्या करे फिर
मीची गई हैं आँख जिसकी
और जिससे
प्रश्न यह पूछा गया है
है पता उसको
कि किसके हाथ हैं ये
कौन उसकी पीठ के पीछे खड़ा है
किन्तु फिर भी
अभिनय तो करता है
थोड़ी देर को वह
जैसे बिल्कुल
जानता उसको नहीं है
और जब बच्चा वह
ख़ुश होता किलकता
सामने आता है उसके
क्या करे वह ?
खींच लेता अंक में अपने
पकड़ कर
एक चुम्बन
गाल पर जड़ देता उसके

मृत्यु
तू भी इस तरह आए अगर तो
यह वचन है
तुझको कुछ भी
यत्न न करना पड़ेगा
मै तुझे
ख़ुद खींच लूँगा
पास अपने
और
उँगली थाम
तेरी चल पडूँगा
तू जहाँ
जिस राह पर भी ले चलेगी

मृत्यु !
स्वागत है तेरा
जब चाहे आना

कुमार अनिल

बच्चू बाबू / कैलाश गौतम

बच्चू बाबू एम.ए. करके सात साल झख मारे
खेत बेंचकर पढ़े पढ़ाई, उल्लू बने बिचारे

कितनी अर्ज़ी दिए न जाने, कितना फूँके तापे
कितनी धूल न जाने फाँके, कितना रस्ता नापे

लाई चना कहीं खा लेते, कहीं बेंच पर सोते
बच्चू बाबू हूए छुहारा, झोला ढोते-ढोते

उमर अधिक हो गई, नौकरी कहीं नहीं मिल पाई
चौपट हुई गिरस्ती, बीबी देने लगी दुहाई

बाप कहे आवारा, भाई कहने लगे बिलल्ला
नाक फुला भौजाई कहती, मरता नहीं निठल्ला

ख़ून ग़‍रम हो गया एक दिन, कब तक करते फाका
लोक लाज सब छोड़-छाड़कर, लगे डालने डाका

बड़ा रंग है, बड़ा मान है बरस रहा है पैसा
सारा गाँव यही कहता है बेटा हो तो ऐसा ।

कैलाश गौतम

कवि-श्री / आरसी प्रसाद सिंह

आया बन जग में प्रातः रविः
मैं भारत-भाग्य विधाता कवि !

तोड़ता अलस जग-जाल जटिल;
सुकुमार, स्नेह-धारा-उर्म्मिल !
मैं पुरुष-पुरातन, प्रेम-दान;
चिर-कविर्मनीषी, सृष्टि-प्रान !!
बरसाती लौह-लेखनी पवि;
मैं विद्रोही इठलाता कवि !

सुर-तरु-सा कर सौरभ-प्रसार
सौंदर्य-पिपासा कुल, उदार;
शाश्वत, अनंत, अच्युत, अक्षर;
मैं चिर-अनादि, अतुलित, निर्जर !
सिकता पर अंकित करता छवि,
मैं नवयुग का निर्माता कवि !

छंदों में बाँध मरुत, सागर;
नाचता नित्य मैं नट-नागर !
शशि, उडु, ग्रह क्रम-क्रम से सभ्रम
करते मानस में संचक्रम !
प्राणों की अपने देता हवि;
मैं भारत-भाग्य विधाता कवि !

आँधी-सी मेरी गति अशांत;
मैं कुवलय-कोमल, कुमुद-कांत !
विग्रह, विनाश, मूर्च्छा, प्रमाद;
मैं अमृत-कल्पना, विष-विषाद !
उद्भासित, शाशित दिग्दिगंत
मेरी प्रतिभा से शुचि-ज्वलंत !!
आक्रांत कर रही प्रांत-प्रांत;
आँधी-सी मेरी गति अशांत !

मैं प्रलय-प्रभंजन, शुभ मुहूर्त;
मंगल, मराल-वाहन, अमूर्त्त !
मैं धूम-ध्वज, मैं मकर केतु,
आकाश विहारी, सिंधु सेतु !!
मैं निष्ठुर, निर्भय, मदोन्भ्रांत;
प्रतिभा से मेरी नभाक्रांत !

उद्धत, अनियंत्रित, महावीर;
सुमनाधिराज मैं सुनाशीर !
युग-युग प्रसिद्ध, युग-युग प्रशस्त;
मैं अमर-वाक् कवि वरद-हस्त !!
चीत्कार-चकित, निर्द्वंद्व, भ्रांत;
मैं आँधी, झंझारव अशांत !

.... .... ....

मैं निरुपम कवि प्रिय, निर्विकार
पाटल-पलाश-पेलव, कुमार !

सुख-दुख-स्वप्न-सस्मित, विभोर
रहता मैं चिर-शिशु, चिर-किशोर
मृग-सा कस्तूरी गंध-अंध
फिरता वन-वन में मैं अबंध !!
वाणी नन्दित मंदार हार
मैं विश्व-विमोहन कलाकार !

भावों का बहता जब समीर
आता नयनों में छलक नीर
मैं अपने गीतों से अधीर
गुंजित कर देता वन-कुटीर !
इस भवतोयधि-जाप मेंअपार
मैं नाविक कवि, निरुपम, उदार !
मैं चिर-सुंदर, चिर-मधु अनंत
मधुमत्त मधुव्रत्त, मधु वसंत !
यौवन मकर्ष, उन्माद-हर्ष !!
पारस-सा मेरा स्वर्ण स्पर्श !
मैं जगद्वंद्व, जग-मुक्ति-द्वार
कवि चिदानंद, उज्ज्वल, उदार !


(हंस : मार्च 1935)

आरसी प्रसाद सिंह