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Thursday, April 17, 2014

शृंगार / आलोक धन्वा

तुम भीगी रेत पर
इस तरह चलती हो
अपनी पिंडलियों से ऊपर
साड़ी उठाकर
जैसे पानी में चल रही हो !

क्या तुम जान-बूझ कर ऐसा
कर रही हो
क्या तुम शृंगार को
फिर से बसाना चाहती हो?

आलोक धन्वा

दिन एक सितम, एक सितम रात करे हो / कलीम आजिज़

दिन एक सितम, एक सितम रात करे हो
वो दोस्त हो, दुश्मन को भी मात करो हो

हम खाक-नशीं, तुम सुखन-आरा-ए-सर-ए-बाम
पास आ के मिलो, दूर से क्या बात करो हो

हमको जो मिला है, वो तुम्ही से तो मिला है
हम, और, भुला दें तुम्हें, क्या बात करो हो!

दामन पे कोई छींट, न खंजर पे कोई दाग
तुम कत्ल करे हो, के करामात करो हो

बकने भी दो अज़ीज़ को, जो बोले है सो बके है
दीवाना है, दीवाने से क्या बात करो हो

कलीम आजिज़

ऊँचाई / अटल बिहारी वाजपेयी

ऊँचे पहाड़ पर,
पेड़ नहीं लगते,
पौधे नहीं उगते,
न घास ही जमती है।

जमती है सिर्फ बर्फ,
जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और,
मौत की तरह ठंडी होती है।
खेलती, खिलखिलाती नदी,
जिसका रूप धारण कर,
अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।


ऐसी ऊँचाई,
जिसका परस
पानी को पत्थर कर दे,
ऐसी ऊँचाई
जिसका दरस हीन भाव भर दे,
अभिनंदन की अधिकारी है,
आरोहियों के लिये आमंत्रण है,
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,

किन्तु कोई गौरैया,
वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,
ना कोई थका-मांदा बटोही,
उसकी छाँव में पलभर पलक ही झपका सकता है।


सच्चाई यह है कि
केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती,
सबसे अलग-थलग,
परिवेश से पृथक,
अपनों से कटा-बँटा,
शून्य में अकेला खड़ा होना,
पहाड़ की महानता नहीं,
मजबूरी है।
ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है।

जो जितना ऊँचा,
उतना एकाकी होता है,
हर भार को स्वयं ढोता है,
चेहरे पर मुस्कानें चिपका,
मन ही मन रोता है।


ज़रूरी यह है कि
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,
जिससे मनुष्य,
ठूँठ सा खड़ा न रहे,
औरों से घुले-मिले,
किसी को साथ ले,
किसी के संग चले।

भीड़ में खो जाना,
यादों में डूब जाना,
स्वयं को भूल जाना,
अस्तित्व को अर्थ,
जीवन को सुगंध देता है।


धरती को बौनों की नहीं,
ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है।
इतने ऊँचे कि आसमान छू लें,
नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,

किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,
कि पाँव तले दूब ही न जमे,
कोई काँटा न चुभे,
कोई कली न खिले।


न वसंत हो, न पतझड़,
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा।

मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
ग़ैरों को गले न लगा सकूँ,
इतनी रुखाई कभी मत देना।
अटल बिहारी वाजपेयी

सजल के शोर ज़मीनों में आशियाना करे / इफ़्तिख़ार आरिफ़

सजल के शोर ज़मीनों में आशियाना करे
न जाने अब के मुसाफ़िर कहाँ ठिकाना करे

बस एक बार उसे पढ़ सकूँ ग़ज़ल की तरह
फिर उस के बाद तो जो गर्दिश-ए-ज़माना करे

हवाएँ वो हैं के हर ज़ुल्फ़ पेच-दार हुई
किसे दिमाग़ के अब आरज़ू-ए-शाना करे

अभी तो रात के सब निगह-दार जागते हैं
अभी से कौन चराग़ों की लौ निशाना करे

सुलूक में भी वही तज़करे वही तशहीर
कभी तो कोई इक एहसान ग़ाएबाना करे

मैं सब को भूल गया ज़ख़्म-ए-मुंदमिल की मिसाल
मगर वो शख़्स के हर बात जारेहाना करे

इफ़्तिख़ार आरिफ़

मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे / आनंद बख़्शी

 
मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे
मुझे ग़म देने वाले तू खुशी को तरसे

तू फूल बने पतझड़ का, तुझ पे बहार न आए कभी
मेरी ही तरह तू तड़पे तुझको क़रार न आए कभी
जिये तू इस तरह की ज़िंदगी को तरसे

इतना तो असर कर जाएं मेरी वफ़ाएं ओ बेवफ़ा
जब तुझे याद आएं अपनी जफ़ाएं ओ बेवफ़ा
पशेमान होके रोए, तू हंसी को तरसे

तेरे गुलशन से ज़्यादा वीरान कोई वीराना न हो
इस दुनिया में तेरा जो अपना तो क्या, बेगाना न हो
किसी का प्यार क्या तू बेरुख़ी को तरसे

आनंद बख़्शी

अभिमत बदलते हैं / इसाक अश्क

रंग
गिरगिट की तरह
अभिमत बदलते हैं ।

रोज़
करते हैं तरफ़दारी
अंधेरों की
रोशनी को
लूटने वाले
लुटेरों की

इसमें
नहीं होते सफल तो
हाथ मलते हैं ।

अवसरों की
हुण्डियाँ बढ़कर
भुनाने की
जानते हैं हम
कला झुकने
झुकाने की

यश
मिले इसके लिए हर
चाल चलते हैं ।

इसाक अश्क

मकाँ से दूर कहीं ला-मकाँ से होता है / 'आसिम' वास्ती

मकाँ से दूर कहीं ला-मकाँ से होता है
सफ़र शुरू यक़ीं का गुमाँ से होता है

वहीं कहीं नज़र आता है आप का चेहरा
तुलू चाँद फ़लक पर जहाँ से होता है

हम अपने बाग़ के फूलों को नोच डालते हैं
जब इख़्तिलाफ़ कोई बाग़-बाँ से होता है

मुझे ख़बर ही नहीं थी के इश्क़ का आग़ाज़
अब इब्तिदा से नहीं दरमियाँ से होता है

उरूज पर है चमन में बहार का मौसम
सफ़र शुरू ख़िज़ाँ का यहाँ से होता है

ज़वाल-ए-मौसम-ए-ख़ुश-रंग का गिला ‘आसिम’
ज़मीन से तो नहीं आसमाँ से होता है

'आसिम' वास्ती

शरण प्रतिपाल गोपाल रति वर्धिनी / कृष्णदास

शरण प्रतिपाल गोपाल रति वर्धिनी ।
देत पिय पंथ कंथ सन्मुख करत , अतुल करुणामयी नाथ अंग अर्द्धिनी ॥१॥
दीन जन जान रसपुंज कुंजेश्वरी रमत रसरास पिय संग निश शर्दनी ।
भक्ति दायक सकल भव सिंधु तारिनी करत विध्वंसजन अखिल अघमर्दनी ॥२॥
रहत नन्दसूनु तट निकट निसि दिन सदा गोप गोपी रमत मध्य रस कन्दनी ।
कृष्ण तन वर्ण गुण धर्म श्री कृष्ण की कृष्ण लीलामयी कृष्ण सुख कंदनी ॥३॥
पद्मजा पाय तू संगही मुररिपु सकल सामर्थ्य मयी पाप की खंडनी ।
कृपा रस पूर्ण वैकुण्ठ पद की सीढी जगत विख्यात शिव शेष सिर मंडनी ॥४॥
पर्योपद कमल तर और सब छांडि के देख दृग कर दया हास्य मुख मन्दनी ।
उभय कर जोर कृष्णदास विनती करें करो अब कॄपा कलिन्द गिरि नन्दिनी ॥५॥

कृष्णदास

न ही कोई दरख़्त हूँ न सायबान हूँ / आनंद कुमार द्विवेदी

न ही कोई दरख़्त हूँ न सायबान हूँ
बस्ती से जरा दूर का तनहा मकान हूँ

चाहे जिधर से देखिये बदशक्ल लगूंगा
मैं जिंदगी की चोट का ताज़ा निशान हूँ

कैसे कहूं कि मेरा तवक्को करो जनाब
मैं खुद किसी गवाह का पलटा बयान हूँ

आँखों के सामने ही मेरा क़त्ल हो गया
मुझको यकीन था मैं बड़ा सावधान हूँ

तेरी नसीहतों का असर है या खौफ है
मुंह में जुबान भी है, मगर बेजुबान हूँ

बोई फसल ख़ुशी की ग़म कैसे लहलहाए
या तू ख़ुदा है, या मैं अनाड़ी किसान हूँ

एक बार आके देख तो ‘आनंद’ का हुनर
लाचार परिंदों का, हसीं आसमान हूँ

आनंद कुमार द्विवेदी

उसने कहा सुन / फ़राज़

उसने कहा सुन
अहद निभाने की ख़ातिर मत आना
अहद निभानेवाले अक्सर मजबूरी या
महजूरी की थकन से लौटा करते हैं
तुम जाओ और दरिया-दरिया प्यास बुझाओ
जिन आँखों में डूबो
जिस दिल में भी उतरो
मेरी तलब आवाज़ न देगी
लेकिन जब मेरी चाहत और मेरी ख़्वाहिश की लौ
इतनी तेज़ और इतनी ऊँची हो जाये
जब दिल रो दे
तब लौट आना

अहमद फ़राज़

प्यास / अंजना भट्ट

इस कदर छाई है दिल और दिमाग पर तेरी याद की आंधी
इस तूफ़ान में उड़ कर भी तेरे पास क्यों नहीं आ पाती?
इस कदर छाई है तन बदन पर तुझसे मिलने की प्यास
इस प्यास में तड़प कर भी तुझमें खो क्यों नहीं पाती?
 
बस आ...कि अब तुझ बिन कोई भी मुझे संभाल नहीं सकता
गंगा की वेगवती लहरें शिव की बलिष्ठ जटाएं चाहती हैं
बस आ..कि अब तो आंखें बहुत प्यासी हैं...और....
तेरे दर्शनों के सिवा अब कुछ भी इस प्यास को बुझा नहीं सकता.
 
तेरी बाँहों के झूले में झूल जाऊं
तेरी आँखों की नमीं में घुल जाऊं
तेरे हाथों की छूअन से पिघल जाऊं
तेरे गर्म सांसो की आँच में जल जाऊं...
 
तब हाँ...तब....
 
तब मेरे बदन की सब गिरहें खुल जायेंगी
और मैं तेरी बाँहों में और भी हल्की हो जाऊँगी
एक नशा सा हावी होगा मेरी रग रग में
और मैं एक तितली की तरह
रंगों में सराबोर हो कर आकाश में उड़ जाऊँगी.
 
चाहे जब मुझे आकाश में उड़ाना, पर मुझे अपनी चाहत में बांधे रखना
ताकी तेरे बंधनों में बंध कर जी सकूँ, उड़ने का सुख पहचान सकूँ
मुझे प्यासी ही रखना, ताकी तेरे लिए हमेशां प्यासी रह सकूँ
मरते दम तक इस प्यास को जी सकूँ, और इसी प्यास में मर सकूँ
 
अजीब ही बनाया है मालिक ने मुझे
पास लाकर भी दूर ही रखा है तुझसे...
वो ही जानता है इसका राज़.
 
शायद इस लिए की मिलने की खुशबू तो पल दो पल की , और फिर ख़त्म....
पर जुदाई की तड़प रहती है बरकरार, पल पल और हर दम...
इसी तड़प और इसी प्यार में जी रही हूँ मैं...
हर पल, हर दिन....
तुझसे मिलने की आस में, इंतज़ार में, गुम हूँ मेरे हमदम.

अंजना भट्ट

दिल-ए-बे-ताब के हम-राह सफ़र / अहमद 'जावेद'

दिल-ए-बे-ताब के हम-राह सफ़र में रहना
हम ने देखा ही नहीं चैन से घर में रहना

स्वांग भरना कभी शाही कभी दुर्वेशी का
किसी सूरत से मुझे उस की नज़र में रहना

एक हालत पे बसर हो नहीं सकती मेरी
जाम-ए-ख़ाक कभी ख़िलअत-ए-ज़र में रहना

दिन में है फ़िक्र-ए-पस-अंदाज़ी-ए-सरमाया-ए-शब
रात भर काविश-ए-सामान-ए-सहर में रहना

दिल से भागे तो लिया दीदा-ए-तर ने गोया
आग से बच के निकलना तो भँवर में रहना

अहल-ए-दुनिया बहुत आराम से रहते हैं मगर
कब मयस्सर है तेरी राह-गुज़र में रहना

वस्ल की रात गई हिज्र का दिन भी गुज़रा
मुझे वारफ़्तगी-ए-हाल-ए-दिगर में रहना

कर चुका है कोई अफ़लाक ओ ज़मीं की तकमील
फिर भी हर आन मुझे अर्ज़-ए-हुनर में रहना

अहमद 'जावेद'

तेरी ज़बाँ से ख़स्ता कोई ज़ार है कोई / 'क़ाएम' चाँदपुरी

तेरी ज़बाँ से ख़स्ता कोई ज़ार है कोई
प्यारे ये नहव ओ सर्फ ये गुफ्तार है कोई

ठोकर में हर कदम की तड़पते हैं दिल कई
ज़ालिक इधर तो देख ये रफ्तार है कोई

जूँ शाख़-ए-गुल है फ्रिक में मेरी शिकस्त की
मेरा गर उस चमन में हवा-दार है कोई

ज़ालिम ख़बर तो ले कहीं ‘काएम’ ही ये न हो
नालान ओ मुज़्तरिब पस-ए-दीवार है कोई

'क़ाएम' चाँदपुरी

गड़ेरिया / कृष्णमोहन झा

कवि नागार्जुन को याद करते हुए


हवा पानी और आकाश की तरह
दिख सकता है कहीं भी वह

यानी वहाँ भी
जहाँ उसके होने की संभावना सबसे कम है

अपनी आत्मा को तुम अगर
अंदर से बाहर की ओर उलट दो
तो उसके उजड़े हुए वन में तुम्हें वह
एक गाछ के नीचे बैठा दिखेगा निराकांक्ष
अपनी लाठी बजाता हुआ अपनी भेड़ें चराता हुआ…

लेकिन उसे जाने दो
तुम तो आत्मा पर विश्वास नहीं करते
कहते हो कि विज्ञान प्रमाणित नहीं करता उसे

शायद ठीक कहते हो तुम

गड़ेरिये को देखने से बहुत पहले
गर्भ में ही तुम खो चुके अपना आत्म
इसलिए अब धूल की तरह
यहाँ –वहाँ उड़ते फिरते हो…

लेकिन यह
हवा-पानी और आसमान की तरह सच है
कि अपनी भेड़ों से चुपचाप बतियाता हुआ
कहीं भी दिख सकता है वह

सिर्फ गिरिडीह में नहीं
अलवर में भी
रतलाम में ही नहीं
चंडीगढ़ में भी
यहाँ तक कि हयात के सामने रिंगरोड पर भी
अपनी भेड़ों को ढूँढता
और नदियों को पुकारता हुआ
अपने वन के लिए रोता
और ॠतुओं के लिए बिसूरता हुआ दिख सकता है वह

लेकिन तुम उसे देखते कहाँ हो

तुम्हारे नगर की छत से जब उठने लगती है
उसकी भेड़ के गोश्त की गंध
एक अबूझ ज्वरग्रस्त पीड़ा में वह बड़बड़ाने लगता है…

नहीं, वह पागल नहीं है
न जाने इतिहास के किस अध्याय से
हाँका लगाकर लाया हुआ कस्तूरी मृग है वह
और उसका अपराध उसकी निष्कवच मौलिकता है

सात किवाड़ों के भीतर
जब तुम्हारा नगर डूब जाता है
अपने वांछित अंधकार में
अपनी अटूट यातना के थरथर प्रकाश में वह
एक अभिशप्त देवदूत की तरह सड़क पर भटकता रहता है

कृष्णमोहन झा

अपने होने का सुबूत / कृष्ण बिहारी 'नूर'


अपने होने का सुबूत और निशाँ छोड़ती है
रास्ता कोई नदी यूँ ही कहाँ छोड़ती है

नशे में डूबे कोई, कोई जिए, कोई मरे
तीर क्या क्या तेरी आँखों की कमाँ छोड़ती है

बंद आँखों को नज़र आती है जाग उठती हैं
रौशनी एसी हर आवाज़-ए-अज़ाँ छोड़ती है

खुद भी खो जाती है, मिट जाती है, मर जाती है
जब कोई क़ौम कभी अपनी ज़बाँ छोड़ती है

आत्मा नाम ही रखती है न मज़हब कोई
वो तो मरती भी नहीं सिर्फ़ मकाँ छोड़ती है

एक दिन सब को चुकाना है अनासिर का हिसाब
ज़िन्दगी छोड़ भी दे मौत कहाँ छोड़ती है

मरने वालों को भी मिलते नहीं मरने वाले
मौत ले जा के खुदा जाने कहाँ छोड़ती है

ज़ब्त-ए-ग़म खेल नहीं है अभी कैसे समझाऊँ
देखना मेरी चिता कितना धुआँ छोड़ती है

कृष्ण बिहारी 'नूर'

चन्द शेर / आसी ग़ाज़ीपुरी

तुम नहीं कोई तो सब में नज़र आते क्यों हो?
सब तुम ही तुम हो तो फिर मुँह को छुपाते क्यों हो?

फ़िराके़-यार की ताक़त नहीं, विसाल मुहाल।
कि उसके होते हुए हम हों, यह कहाँ यारा?

तलब तमाम हो मतलूब की अगर हद हो।
लगा हुआ है यहाँ कूच हर मुक़ाम के बाद।

अनलहक़ और मुश्ते-ख़ाके-मन्सूर।
ज़रूर अपनी हक़ीक़त उसने जानी॥

इतना तो जानते हैं कि आशिक़ फ़ना हुआ।
और उससे आगे बढ़के ख़ुदा जाने क्या हुआ॥

यूँ मिलूँ तुमसे मैं कि मैं भी न हूँ।
दूसरा जब हुआ तो ख़िलवत क्या?

इश्क़ कहता है कि आलम से जुदा हो जाओ।
हुस्न कहता है जिधर जाओ नया आलम है?

वहाँ पहुँच के यह कहना सबा! सलाम के बाद।
"कि तेरे नाम की रट है, ख़ुदा के नाम के बाद"॥

यह हालत है तो शायद रहम आ जाय।
कोई उसको दिखा दे दिल हमारा॥

ज़ाहिर में तो कुछ चोट नहीं खाई है ऐसी।
क्यों हाथ उठाया नहीं जाता है जिगर से?

ता-सहर वो भी न छोड़ी तूने ऐ बादे-सबा!
यादगारे-रौनक़े-महफ़िल थी परवाने की ख़ाक॥

वो कहते हैं--"मैं ज़िन्दगानी हूँ तेरी"।
यह सच है तो इसका भरोसा नहीं है॥

कमी न जोशे-जुनूँ में, न पाँव में ताकत।
कोई नहीं जो उठा लाए घर में सहरा को॥

ऐ पीरेमुग़ाँ! ख़ून की बू साग़रे-मय में।
तोड़ा जिसे साक़ी ने, वो पैमानये-दिल था॥

कुछ हमीं समझेंगे या रोज़े-क़यामतवाले।
जिस तरह कटती है उम्मीदे-मुलाक़ात की रात॥

गु़बार होके भी ‘आसी’ फिरोगे आवारा।
जुनूँने-इश्क़ से मुमकिन नहीं है छुटकारा॥

हम-से बेकल-से वादये-फ़रदा?
बात करते हो तुम क़यामत की॥

साथ छोड़ा सफ़रे-मुल्केअदम में सब ने।
लिपटी जाती है मगर हसरते-दीदार हनूज॥

हवा के रुख़ तो ज़रा आके बैठ जा ऐ क़ैस।
नसीबे-सुबह ने छेड़ा है ज़ुल्फ़े-लैला को॥

बस तुम्हारी तरफ़ से जो कुछ हो।
मेरी सई और मेरी हिम्मत क्या॥

आसी ग़ाज़ीपुरी

प्रेम पर कुछ बेतरतीब कविताएँ-4 / अनिल करमेले

फिर बताएँगे / अनीता कपूर

चलो फिर बताएँगे
जमाने ने किए कितने सितम
और हमने कितने सहे
चलो फिर बताएँगे
लोगों ने कितनी बार तोड़ा दिल
और हमने कितने सिये
चलो फिर बताएँगे
कितने रिश्ते बेमानी हुए
और कितने हमने जी लिए
चलो फिर बताएँगे

अनीता कपूर

तरणि तनया तीर आवत हें प्रात समे / कृष्णदास

तरणि तनया तीर आवत हें प्रात समे गेंद खेलत देख्योरी आनंद को कंदवा।
काछिनी किंकणि कटि पीतांबर कस बांधे लाल उपरेना शिर मोरन के चंदवा॥१॥
पंकज नयन सलोल बोलत मधुरे बोल गोकुल की सुंदरी संग आनंद स्वछंदवा।
कृष्णदास प्रभु गिरिगोवर्धनधारी लाल चारु चितवन खोलत कंचुकी के बंदवा॥२॥

कृष्णदास

Wednesday, April 16, 2014

फिर महकी अमराई / अवनीश सिंह चौहान

फिर महकी अमराई
कोयल की ऋतु आई
नए-नए बौरों से
डाल-डाल पगलाई !

एक प्रश्न बार-बार
पूछता है मन उघार
तुम इतना क्यों फूले?

नई-नई गंधों से
सांस-सांस हुलसाई!

अंतस में प्यार लिए
मधुरस के आस लिए
भँवरा बन क्यों झूले?

न-नए रागों से
कली-कली मुस्काई!

फिर महकी अमराई
कोयल की ऋतु आई
नए-नए बौरों से
डाल-डाल पगलाई!

अवनीश सिंह चौहान

चलो मीत / अंजू शर्मा

चलो मीत,
चलें दिन और रात की सरहद के पार,
जहाँ तुम रात को दिन कहो
तो मैं मुस्कुरा दूं,
जहाँ सूरज से तुम्हारी दोस्ती
बरक़रार रहे
और चाँद से मेरी नाराज़गी
बदल जाये ओस की बूंदों में,
चलो मीत,
चलें उम्र की उस सीमा के परे
जहाँ दिन, महीने, साल
वाष्पित हो बदल जाएँ
उड़ते हुए साइबेरियन पंछियों में
और लौट जाएँ सदा के लिए
अपने देश,

चलो मीत,
चलें भावनाओं के उस परबत पर
जहाँ हर बढ़ते कदम पर
पीछे छूट जाये मेरा ऐतराज़ और
संकोच,
और जब प्रेम शिखर नज़र आने लगे
तो मैं कसके पकड़ लूं तुम्हारा हाथ
मेरे डगमगाते कदम सध जाएँ
तुम्हारे सहारे पर,

चलो मीत,
कि बंधन अब सुख की परिधि
में बदल चुका है
और उम्मीद की बाहें हर क्षण
बढ़ रही है तुम्हारी ओर,
आओ समेट लें हर सीप को
कि आज सालों बाद स्वाति नक्षत्र
आने को है,

चलो मीत,
कि मिट जाये फर्क
मिलन और जुदाई का,
इंतजार के पन्नों पर बिखरी
प्रेम की स्याही सूखने से पहले,
बदल दे उसे मुलाकात की
तस्वीरों में,

चलो मीत,
हर गुजरते पल में
हलके हो जाते हैं समय के पाँव,
और लम्बे हो जाते हैं उसके पंख,
चलो मीत आज बांध लें समय को
सदा के लिए,

अभी, इसी पल..............

अंजू शर्मा

लखुंदर / अम्बर रंजना पाण्डेय

नदी में दोलते है सहस्रों सूर्य,

स्वच्छ दर्पण झिलमिला रहा हैं ।

मुख न देख
पाओगी तुम स्नान के पश्चात्,
छाँह ज्यों ही पड़ेगी
सूर्य का चपल बिम्ब घंघोल
देगा आकृति,
पुतलियाँ ही दिखेंगी तैरती मछलियों-सी,

इस वर्ष वर्षा बहुत हुई है इसलिए
अब तक ऊपर-ऊपर तक भरी है नदी।

पूछता हूँ
'नदी का नाम लखुंदर कैसे
पड़ गया ?'
युवा नाविक बता नहीं पाता
'लखुंदर' का तत्सम रूप
क्या होगा...

नाव हो जाती है
तब तक पार
दिखती है मंदिर की ध्वजा

अगली बार
'नहाऊँगा नदी में' करते हुए संकल्प
चढ़ता हूँ सीढियाँ ।

पीछे जल बुलाता हैं

अम्बर रंजना पाण्डेय

म्वार देसवा हवै आजाद / उमेश चौहान

म्वार देसवा हवै आजाद,
हमार कोउ का करिहै।

कालेज ते चार-पाँच डिग्री बटोरिबै,
लड़िबै चुनाव, याक कुरसी पकरिबै,
कुरसी पकरि जन-सेवक कहइबै,
पेट्रोल-पंपन के परमिट बटइबै,

खाली गुल्लक करब आबाद
हमार कोउ का करिहै।

गाँधी रटबु रोजु आँधी मचइबै,
किरिया करबु गाल झूठै बजइबै,
दंगा मचइबै, फसाद रचइबै,
वोटन की बेरिया लासा लगइबै,

फिरि बनि जइबै छाती का दादु,
हमार कोउ का करिहै॥

संसद मां बैठि रोजु हल्ला मचइबै,
देसी विदेसी मां भासनु सुनइबै,
घर मां कोऊ स्मगलिंग करिहै,
कोऊ डकैतन ते रिश्ता संवरिहै,

धारि खद्दर बनब नाबाद,
हमार कोउ का करिहै॥

बहुरी समाजवाद जब हम बोलइबै,
आँखिन मां धूरि झोंकि दारिद छिपइबै,
भारत उठी जब-जब हम उठइबै,
भारत गिरी जब-जब हम गिरइबै,

कोऊ अभिरी करब मुरदाद,
हमार कोउ का करिहै॥

उमेश चौहान

स्पर्श-1 / अम्बर रंजना पाण्डेय

दोपहर का खजूर सूर्य के एकदम निकट
पानी बस मटके में
छाँह बस जाती अरथी के नीचे

आँखों के फूल खुलने-खुलने को
थे जब
तुमने देखा
शंख में भर गंगाजल भिगोया शीश

कंधे भीग गए और निकल गया
गुलाबी रंग
साँवले कंधे और चौड़े हो गए
भरने को दो स्तनों को ऊष्ण
स्वेद से खिंचे हुए
खिंचे हुए भार से

पत्थर पर टूटने को और जेल में
कास लेने को
जब निदाघ में
और और श्यामा तू मुझमें एक हुई
पका, इतना पीला
कि केसरिया लाल होता हुआ
रस से
फटता, फूटा सर पर खरबूज
कंठ पर बही लम्बी-लम्बी धारें

मैं एकदम गिरने को दुनिया की
सबसे ऊँची इमारत की छत से

कि अब गिरा अब गिरा अब मैं

अब गिरा
रेत की देह

अम्बर रंजना पाण्डेय

स्वागत नए वर्ष का / अनुराग अन्वेषी

साथियो,
शुभकामनाओं से पहले
एक सवाल
तमाम कौशल के बाद भी
कब तक होते रहोगे हलाल ?

छोड़ो यह मलाल
कि जो बजाते रहे
सालों भर गाल
उनके हाथ में क्यों है
रेशमी रुमाल ?

हाँ साथियो,
सच्चे मन से जलाओ मशाल
जिसकी रोशनी बयाँ कर सके
तुम्हारा हाल
तभी तुम बन सकोगे मिसाल
देखो, दहलीज पर खड़ा है
उम्मीदों का नया साल ।

अनुराग अन्वेषी

भोजवन में पतझड़ / अजेय

मौसम में घुल गया है शीत
बेशरम ऎयार
छीन रहा वादियों की हरी चुनरी

लजाती ढलानें
हो रही संतरी
फिर पीली
और भूरी

मटमैला धूसर आकाश
नदी पारदर्शी
संकरी !

काँप कर सिहर उठी सहसा
कुछ आखिरी बदरंग पत्तियाँ
शाख से छूट उड़ी सकुचाती
खिड़की की काँच पर
चिपक गई एकाध !

दरवाजे की झिर्रियों से
सेंध मारता
वह आखिरी अक्तूबर का
बदमज़ा अहसास
ज़बरन लिपट गया मुझसे !

लेटी रहेगी अगले मौसम तक
एक लम्बी
सर्द
सफ़ेद
मुर्दा
लिहाफ़ के नीचे
एक कुनकुनी उम्मीद
कि कोंपले फूटेंगी
और लौटेगी
भोजवन में ज़िन्दगी ।


रचनाकाल : नैनगार 18-10-2005

अजेय

इंसां को इंसां से... / उत्‍तमराव क्षीरसागर


इंसां को इंसां से बैर नहीं है
फि‍र भी इंसां की ख़ैर नहीं है

ये क़ाति‍ल जुल्‍मी औ' डाकू लुटेरे
अपने ही हैं सब ग़ैर नहीं हैं

अच्‍छाई की राहें हैं हज़ारों
उन पर चलने वाले पैर नहीं हैं

दूर बहुत दूर होती हैं मंजि‍लें अक्‍सर
लंबा सफ़र है यह कोई सैर नहीं है

उत्‍तमराव क्षीरसागर

धूप / अज्ञेय

सूप-सूप भर
धूप-कनक
यह सूने नभ में गयी बिखर:
चौंधाया
बीन रहा है
उसे अकेला एक कुरर।

अल्मोड़ा
५ जून १९५८

अज्ञेय

ढूँढ़ता है आदमी सदियों से दुनिया में सुकून / इकराम राजस्थानी


ढूंढ़ता है आदमी, सदियों से दुनिया, में सुकून।
धूप में साया मिले, कमल जाये सहरा में सुकून।

छटपटाती है किनारों, पर मिलन की आस में
हर लहर पा जाती है, जाकर के दरिया में सुकून।

बेक़रारी है कभी, पूरे समन्दर की तरह,
और कभी मिल जाता है बस, एक क़तरे में सुकून।

ज़िन्दगी को इससे ज्य़ादा और क्या कुछ चाहिए?
लबस हो इक प्यार का, और उसके लमहात में सुकून।

हर सवाली चेहरे पे लिख़ी इबारत देखिए,
चैन है कि न आँखों में, और कौन से दिल में सुकून।

वो खुदा से कम नहीं लगता है, मुझको दोस्तो,
मेरे ख़ातिर माँगता है जो दुआओं में सुकून।

ये उसी दामन की भीनी खुशबू का एहसास है,
जो मुझे महसूस होता है हवाओं में सुकून।

इकराम राजस्थानी

हाल-ए-गम उन को सुनाते जाइए / ख़ुमार बाराबंकवी


हाले-ग़म उन को सुनाते जाइए
शर्त ये है मुस्कुराते जाइए

आप को जाते न देखा जाएगा
शम्मअ को पहले बुझाते जाइए

शुक्रिया लुत्फ़े-मुसलसल का मगर
गाहे-गाहे दिल दुखाते जाइए

दुश्मनों से प्यार होता जाएगा
दोस्तों को आज़माते जाइए

रोशनी महदूद हो जिनकी 'ख़ुमार'
उन चराग़ों को बुझाते जाइए

ख़ुमार बाराबंकवी

इस उस के असर में रहे / इसाक अश्क

इस उस के असर में रहे
हम फँसे भँवर में रहे

हाथ में उठाते पत्थर कैसे
उम्र भर काँच-घर में रहे

पहुँच कर भी नहीं पहुँचे कहीं
यूँ तो रोज़ सफ़र में रहे

झूठी नामवरी के लिए उलझे
बे-परों की ख़बर में रहे

काम एक भी न कर पाए ढंग का
खोए बस अगर-मगर में रहे

इसाक अश्क

वफ़ा के भेस में कोई रक़ीब-ए-शहर भी है / फ़राज़

वफ़ा के भेस में कोई रक़ीब-ए-शहर भी है
हज़र! के शहर के क़ातिल तबीब-ए-शहर भी है

वही सिपाह-ए-सितम ख़ेमाज़न है चारों तरफ़
जो मेरे बख़्त में था अब नसीब-ए-शहर भी है

उधर की आग इधर भी पहुँच न जाये कहीं
हवा भी तेज़ है जंगल क़रीब-ए-शहर भी है

अब उस के हिज्र में रोते हैं उसके घायल भी
ख़बर न थी के वो ज़ालिम हबीब-ए-शहर भी है

ये राज़ नारा-ए-मन्सूर ही से हम पे ख़ुला
के चूब-ए-मिम्बर-ए-मस्जिद सलीब-ए-शहर भी है

कड़ी है जंग के अब के मुक़ाबिले पे "फ़राज़"
अमीर-ए-शहर भी है और खतीब-ए-शहर भी है

अहमद फ़राज़

प्रथम स्राव / अनामिका

उसकी सफेद फ्रॉक
और जाँघिए पर
किस परी माँ ने काढ़ दिए हैं
कत्थई गुलाब रात-भर में?
और कहानी के वे सात बौने
क्यों गुत्थम-गुत्थी
मचा रहे हैं
उसके पेट में?
अनहद-सी बज रही है लड़की
काँपती हुई।
लगातार झंकृत हैं
उसकी जंघाओं में इकतारे
चक्रों सी नाच रही है वह
एक महीयसी मुद्रा में
गोद में छुपाए हुए
सृष्टि के प्रथम सूर्य सा, लाल-लाल तकिया

अनामिका

निज़ाम-ए-बसत ओ कुशाद-ए-मानी सँवारते हैं / अमीर हम्ज़ा साक़िब

निज़ाम-ए-बसत ओ कुशाद-ए-मानी सँवारते हैं
हम अपने शेरों में तेरा पैकर उतारते हैं

अजब तिलिस्मी-फ़िज़ा है सारी बालाएँ चुप हैं
ये किस बयाबाँ में रात दिन हम गुज़ारते हैं

ग़ुबार-ए-दुनिया में गुम है जब से सवार-ए-वहशत
अतश-अतश दश्त ओ कोह ओ दरिया पुकारते हैं

मुसाफ़िरान-ए-गुमाँ रहे क्यूँ कमर-ख़मीदा
चलो ये पुश्तारा-ए-तमन्ना उतारते ळैं

जबीन-ए-अहल-ए-ग़रज़ पे कोई मुकाल्मा क्या
जहाँ तहाँ हाजतों की झोली पसारते हैं

अमीर हम्ज़ा साक़िब

बर्फ़ हो जाना किसी तपते हुए अहसास का / कुमार विनोद

बर्फ़ हो जाना किसी तपते हुए अहसास का
क्या करूँ मैं ख़ुद से ही उठते हुए विश्वास का

आँधियों से लड़ के गिरते पेड़ को मेरा सलाम
मैं कहाँ क़ायल हुआ हूँ सर झुकाती घास का

नाउम्मीदी है बड़ी शातिर कि आ ही जाएगी
हम रोशन किए बैठे हैं दीपक आस का

देखकर ये आसमाँ को भी बड़ी हैरत हुई
पढ़ कहाँ पाया समंदर ज़र्द चेहरा प्यास का

घर मेरे अक्सर लगा रहता है चिड़ियों का हुजूम
है मेरा उनसे कोई रिश्ता बहुत ही पास का

कुमार विनोद

बड़ी हैं उलझनें उससे बड़ी ये जिंदगानी है / आशीष जोग


बड़ी हैं उलझनें उससे बड़ी ये जिंदगानी है,
तुम्हारी या हमारी हो, बड़ी लम्बी कहानी है |

सुनाएँ हाल-ए-दिल क्या और भला घुटते हैं तनहा क्यूँ,
वही बेकार किस्से हैं वही आँखों में पानी है |

हैं आज आकर के बैठे पास पूछें हाल वो मेरा,
बड़ी खुश-किस्मती अपनी और उनकी मेहेरबानी है |

जो होना है वही हो तो करे कोई मशक्क़त क्यूँ,
जो चाहे कर दिखा दे नाम उसका ही जवानी है |

यहीं पर हम मिले थे और वहाँ बैठे थे पहली बार,
चलो इक और जगह जो हमें तुमको दिखानी है |

गुलों से वास्ता अपना है लेकिन ग़ुलफ़रोशी का,
बहार आनी है तो आये ये आनी और जानी है |

इसे देखो लगाए फिर रहे सीने से हम अब तक,
मिला है जो हमें ये ग़म उन्हीं की तो निशानी है |

है इन्सां क्या ना वो जानें समझते खुद को हैं वाइज़,
किताबें रट चुकें और याद उनको सब जुबानी हैं |

आशीष जोग

छिन्दवाड़ा-2 / अनिल करमेले

मेरे भीतर / ओम पुरोहित ‘कागद’


मेरे भीतर
एक बच्चा
एक युवा
एक जवान
... एक प्रोढ़
एक स्त्री भी है
स्त्री डरती है
बाकी मचलते हैँ
बुढ़ापे के जाल फैँक
मेरे भीतर को
कैद किया जाता है
इस जाल से भयभीत
मेरे भीतर के सभी
मेरा साथ छोड़ जाते हैँ
पासंग मेँ रहती है
एक स्त्री
जो हर पल
डरती रहती है !

ओम पुरोहित ‘कागद’

Tuesday, April 15, 2014

तस्वीर / ओम पुरोहित ‘कागद’


तस्वीर बनाई मैँनेँ
रंग कोई और भर गया ;
चेहरे पर काला
...बालों पर मटमैला
पैरों मेँ नीला
और हाथोँ मेँ भगवां !

मैँ
अपनी ही बनाई
उस तस्वीर से डर गया !

ओम पुरोहित ‘कागद’

प्रेम पर एक जरूरी कविता / अरुण श्रीवास्तव

अनचिन्हे रास्तों पर पदचिन्ह टांकता मैं -
मानचित्र पसारे अपने बीच की दूरी माप रहा हूँ!
और तुम -
यही दूरी बाहें फैलाकर मापती हो!
मैं भीगते देखता हूँ समन्दरों वाला हिस्सा!
और अधगीले कागज पर लिख देता हूँ -
दहकते सूरज की कविता!

आखिरी खत में सिर्फ चाँद उकेरा तुमने,
मेरे नाम के नीचे!
मैं धब्बों का रहस्य खोजने लगता हूँ!
किसी रहस्यमयी शिखर से -
कुछ पुराने खत पढूंगा किसी दिन
कि तुम्हारा मौन पराजित हो तुम्हारे ही शब्दों से!
निर्माणीय कोलाहल से नादित कविताओं के सापेक्ष
अधिक मुखर है तुम्हारा मौन!

चलो अच्छा, मैं लौट आता हूँ!
फेक देता हूँ दहकती, चीखती कविताएँ,
शब्दों के कूडेदान में!
और तुम -
वही से संवाद की सम्भावनाएं तलाशो!
तुम्हारे रुदन और मौन के बीच खड़ा कवि
लिखना चाहता है -
प्रेम पर एक जरूरी कविता!

अरुण श्रीवास्तव

उम्र सफर में गुजरी लेकिन शौके-सियाह्त बाकी है / आलम खुर्शीद

उम्र सफर में गुजरी लेकिन शौके-सियाह्त बाकी है
कोई मुसाफत खत्म हुई है ,कोई मुसाफत बाकी है

ऐसे बहुत से रस्ते हैं जो रोज पुकारा करते हैं
कई मनाज़िल सर करने की अब तक चाहत बाकी है

एक सितारा हाथ पकड़ कर, दूर कहीं ले जाता है
रोज़ गगन में खो जाने की अबतक आदत बाकी है

चश्मे -बसीरत कुछ तो बता दे कब वो लम्हे आयेंगे
जिन की खातिर इन आँखों में इतनी बसारत बाकी है

खत्म कहानी हो जाती तो नींद मुझे भी आ जाती
कोई फ़साना भूल गया हूँ , कोई हिकायत बाकी है

दुनिया के गम फुर्सत दें तो दिल के तकाजे पूरे हों
कूचा-ए-जानां ! तेरी भी तो सैर ओ सियाहत बाकी है

शहरे-तमन्ना ! बाज़ आया मैं तेरे नाज़ उठाने से
एक शिकायत दूर करूँ तो एक शिकायत बाक़ी है

एक जरा सी उम्र में 'आलम ' कहाँ कहाँ की सैर करूँ
जाने मेरे हिस्से में अब कितनी मुहलत बाकी है

आलम खुर्शीद

एक टुकड़ा आसमान / आकांक्षा पारे

लड़की के हिस्से में है
खिड़की से दिखता
आसमान का टुकड़ा
खुली सड़क का मुँहाना
एक व्यस्त चौराहा
और दिन भर का लम्बा इन्तज़ार।

खिड़की पर तने परदे के पीछे से
उसकी आँखें जमी रहती हैं
व्यस्त चौराहे की भीड़ में
खोजती हैं निगाहें
रोज एक परिचित चेहरा।

अब चेहरा भी करता है इन्तज़ार
दो आँखें
हो गई हैं चार।

दबी जुबान से
फैलने लगी हैं
लड़की की इच्छाएँ

अब छीन लिया गया है
लड़की से उसके हिस्से का
एक टुकड़ा आसमान भी।

आकांक्षा पारे

शादी के कार्ड / अविनाश मिश्र

इस संसार में कई व्यक्तियों के जीवन में
केवल शादी के कार्ड ही अच्छे होते हैं
लेकिन वे भी वक़्त की चोट से धीरे-धीरे
एक जर्जर और मटमैली सी चीज़ होते जाते हैं

वे कहीं से भी आए हों
घर की एक उपेक्षित अलमारी में रख दिए जाते हैं
पूर्वजों के चित्रों, एलुमिनियम के बर्तनों, तुलसी के बीजों,
दीपकों, पंचांगों, पुस्तकों, पतंगों और लट्टुओं के साथ
उन्हें नष्ट करना अपशगुन समझा जाता है
जबकि इस कृत्य से बहुत बड़े-बड़े उजड़ने और उजाड़ने के खेल
शगुन बनकर चलन में उपस्थित रहते हैं
समय व समाज के अंतवंचित शुभाशुभ कार्यक्रमों में

समय समर में असंख्य शीर्षक एक संग परिणय में गुँथे हुए
श्री गणेशाय नम: और वक्रतुण्ड महाकाय... की अनिवार्यता में
बुजुर्ग दर्शनाभिलाषी और स्वागतोत्सुक बच्चे
प्रीतिभोज के स्वाद से जुड़ी हुईं वे मधुर और कड़वी स्मृतियाँ
और वह संगीत ‘तू हो तो बढ़ जाती है क़ीमत मौसम की...’
और इसका विस्तार ‘अरमां किसको जन्नत की रंगीं गलियों का...’

लेकिन यह रोमाण्टिसिज्म सब संसर्गों में संभव नहीं होता
जो अभी और भद्दी होंगी वे भद्दी लडकियाँ भी बड़ी आकर्षक लगती हैं
काली करतूतों वाले व्यसनी पुरुष चेहरे भी
मर्यादा पुरुषोत्तम से जान पड़ते हैं प्रथम भेंटों में...

लेकिन मेरे इस अद्भुत राष्ट्र में परम्परा है कि बस ठीक है
यहाँ असंख्य प्रसंगों और प्रचलनों में तर्क की गुँजाइश नहीं

विवाह को मार्क्स और एंगेल्स ने ‘संस्थाबद्ध वेश्यावृत्ति’ कहा है
लेकिन जैसाकि ज्ञात है भारतीय परिवेश में ही नहीं
अपितु अखिल विश्व में अब तक
इन दोनों महानुभावों का कहा हुआ काफ़ी कुछ ग़लत सिद्ध हुआ है
वैसे ही यह घृणित कथन भी...

‘प्रेम काव्य है और विवाह साधारण गद्य’
ऐसा कहीं ओशो ने कहा है
लेकिन यह कथन स्वयं वैसे ही साधारण हो गया
जैसे एक भाषा की कुछ सामयिक लघु-पत्रिकाओं में प्रकाशित काव्य...

फिलहाल तलाक़ तलाक़ तलाक़ और दहेज प्रताड़नाएँ व हत्याएँ
और कन्या-भ्रूण हत्याएँ और कई स्थानीयताओं और जातियों में
पुरुषों की तुलना में घटता महिला अनुपात
और घरेलू अत्याचार और स्वयंवरों का बाज़ार
और लिव-इन-रिलेशनशिप और समलैंगिकता और स्त्री-विमर्श और महँगाई
और और भी कई सारी बुराइयों के बावजूद
‘शादी के कार्ड’ हैं कि आते ही जाते हैं बराबर और बदस्तूर
मेरे घर नई-नई जगहों पर मुझे न्योतते हुए...

अविनाश मिश्र

इसे रोशनी दे, उसे रोशनी दे / गिरिराज शरण अग्रवाल

इसे रोशनी दे, उसे रोशनी दे
सभी को उजालों-भरी ज़िंदगी दे

सिसकते हुए होंठ पथरा गए हैं
इन्हें कहकहे दे, इन्हें रागिनी दे

नहीं जिनमें साहस उन्हें यात्रा में
न किश्ती सँभाले, न रस्ता नदी दे

मेरे रहते प्यासा न रह जाए कोई
मुझे दिल दिया है तो दरियादिली दे

मुझे मेरे मालिक! नहीं चाहिए कुछ
ज़मीं को मुहब्बत-भरा आदमी दे

गिरिराज शरण अग्रवाल

अब क़बीले की रिवायत है बिखरने वाली / अम्बर बहराईची

अब क़बीले की रिवायत है बिखरने वाली
हर नज़र ख़ुद में कोई शहर है भरने वाली

ख़ुश-गुमानी ये हुई सूख गया जब दरिया
रेत से अब मिरी कश्ती है उभरने वाली

ख़ुशबुओं के नए झोंके हैं हर इक धड़कन में
कौन सी रूत है मिरे दिल में ठहरने वाली

कुछ परिंदे हैं मगन मौसमी परवाज़ों में
एक आँधी है पर-ओ-बाल कतरने वाली

हम भी अब सीख गए सब्ज़ पसीने की ज़बाँ
संग-ज़ारों की जबीनें हैं सँवरने वाली

तेज़ धुन पर थे सभी रक़्स में क्यूँ कर सुनते
चंद लम्हों में बलाएँ थीं उतरने वाली

बस उसी वक़्त कई ज्वाला-मुखी फूट पड़े
मोतियों से मिरी हर नाव थी भरने वाली

ढक लिया चाँद के चेहरे को सियह बादल ने
चाँदनी थी मिरे आँगन में उतरने वाली

अम्बर बहराईची

छिन्दवाड़ा-2 / अनिल करमेले

कहाँ गया वह शहर
जहाँ साल में वारदात-ए-हत्या बमुश्किल होती रही
जहाँ छोटी बाजार की रामलीला
पोला ग्राउंड का पोला दशहरा और
स्टेडियम का होली कवि सम्मेलन
बस होते मनोरंजन के साधन रहवासियों के

जहाँ आँखें पोंछते दिखाई देतीं पाटनी टाकीज से
फिल्म देखकर निकली महिलाएँ
टोकनी में फल और फुटाने रखकर
घर-घर आवाजें लगातीं फलवालियाँ
मज़े से गपियाती चूड़ी पहनाती चूड़ीवालियाँ
रिक्शेवाला पता नहीं, पूछता था किसके घर जाना है

जहाँ से जाने का नाम नहीं लेते थे
जाने कहाँ-कहाँ से ट्रांसफर पर आए
बाबू पटवारी और छोटे बड़े अध्यापक
वे कुछ दिनों के लिए आए और
उनकी पीढ़ियाँ यहीं की होकर रह गईं

अनिल करमेले

दोस्त जब ज़ी-वक़ार होता है / इन्दिरा वर्मा

दोस्त जब ज़ी-वक़ार होता है
 दोस्ती का मेयार होता है

 अब तसव्वुर की सूनी वादी में
 रोज़ जश्न-ए-बहार होता है

 गुलशन-ए-जाँ में उन के आने से
 गुल-सिफ़त कारोबार होता है

 जब बिछड़ जाता है कोई अपना
 ग़म ही बस रोज़-गार होता है

 चाँद का रक़्स हो रहा है कहीं
 दिल यहाँ से निसार होता है

 शाख़-दर-शाख़ होती है ज़ख़्मी
 जब परिंदा शिकार होता है

इन्दिरा वर्मा

हर तरफ़ रौशनी है सूरज की / ओम प्रकाश नदीम

हर तरफ़ रौशनी है सूरज की ।
वाह क्या ज़िन्दगी है सूरज की ।

आँख देखा भी सच नहीं होता,
चाँदनी, रौशनी है सूरज की ।

प्यास को और भी बढ़ाती है,
धूप, ऐसी नदी है सूरज की ।

आसमाँ सुर्खरू-सा लगता है,
पालकी आ रही है सूरज की ।

ताकि ख्वाबीदा लोग जाग उठें,
इसलिए बात की है सूरज की ।

ओम प्रकाश नदीम

चंद रुबाइयात / अमजद हैदराबादी

हर ज़र्रेपै फ़ज़ले-किब्रिया[1] होता है।
इक चश्मे-ज़दन में[2] क्या से क्या होता है॥
असनाम दबी ज़बाँ से यह कहते हैं--
"वो चाहे तो पत्थर भी खु़दा होता है॥

हर गाम पै चकरा के गिरा जाता हूँ।
नक़्शे-कफ़े-पा बनके मिटा जाता हूँ॥
तू भी तो सम्भाल मेरे देनेवाले!
मैं बारे-अमानत में दबा जाता हूँ॥

इस जिस्म की केचुली में इक नाग भी है।
आवाज़-शिकस्ता दिल में इक राग भी है॥
बेकार नहीं बना है, इक तिनका भी।
ख़ामोश दियासलाई में इक आग भी है॥


शब्दार्थ:
  1. ईश्वरीय कृपा
  2. पलक मारते
अमजद हैदराबादी

तुम से न मिल के खुश हैं वो दावा किधर गया / 'कैफ़' भोपाली

तुम से न मिल के खुश हैं वो दावा किधर गया
दो रोज़ में गुलाब सा चेहरा उतर गया

जान-ए-बहार तुम ने वो काँटे चुभोए हैं
मैं हर गुल-ए-शगुफ्ता को छूने से डर गया

इस दिल के टूटने का मुझे कोई गम नहीं
अच्छा हुआ के पाप कटा दर्द-ए-सर गया

मैं भी समझ रहा हूँ के तुम तुम नहीं रहे
तुम भी ये सोच लो के मेरा ‘कैफ’ मर गया

'कैफ़' भोपाली

शहनाइयाँ / अरविन्द अवस्थी

यदि इसी तरह
चलता रहा वक्त
निरंकुश, अमर्यादित
तो छिन जाएँगी
आँगन की किलकारियाँ ।
सूनी हो जाएँगी
भाइयों की कलाइयाँ
खाने दौड़ेंगी
ऊँची इमारतें ।

नहीं सजेंगी ड्यौढ़ियाँ
रंगोली से
किसी त्योहार पर
नहीं खनकेंगी
काँच की गुलाबी चूड़ियाँ ।
ऋतुएँ उलाहना देंगी
आकर लौट जाएँगी
बार-बार दरवाज़े से
कि नहीं सुनाई पड़ते
कोकिलाकंठियों के गीत
हमारी अगवानी में ।

उदास हो जाएगा
मनभावन सावन ।
नहीं गूँजेंगी
दरवाज़े पर शहनाइयाँ ।
आख़िर कब चेतेगा
संवेदनहीन समाज ।
कब तक करता रहेगा क़त्ल
इन कोंपलों का ।
इनका दोष क्या ?
यह कि ये
बन जाना चाहती हैं
नवसृजन के निबंध की
भूमिका ।

अरविन्द अवस्थी

Monday, April 14, 2014

सीतल सदन में सीतल भोजन भयौ / कुम्भनदास

सीतल सदन में सीतल भोजन भयौ,
सीतल बातन करत आई सब सखियाँ ।
छीर के गुलाब-नीर, पीरे-पीरे पानन बीरी,
आरोगौ नाथ ! सीरी होत छतियाँ ॥
जल गुलाब घोर लाईं अरगजा-चंदन,
मन अभिलाष यह अंग लपटावनौ ।
कुंभनदास प्रभु गोवरधन-धर,
कीजै सुख सनेह, मैं बीजना ढुरावनौ ॥

कुम्भनदास

चेन्नई में कोयल / आलोक धन्वा

चेन्नई में कोयल बोल रही है
जबकि
मई का महीना आया हुआ है
समुद्र के किनारे बसे इस शहर में

कोयल बोल रही है अपनी बोली
क्या हिंदी
और क्या तमिल
उतने ही मीठे बोल
जैसे अवध की अमराई में !

कोयल उस ऋतु को बचा
रही है
जिसे हम कम जानते हैं उससे !

आलोक धन्वा

कौन थकान हरे / गिरिजाकुमार माथुर

 कौन थकान हरे जीवन की ।
     बीत गया संगीत प्‍यार का,
     रूठ गई कविता भी मन की ।

वंशी में अब नींद भरी है,
स्‍वर पर पीत साँझ उतरी है
बुझती जाती गूँज आखरी —
इस उदास वन-पथ के ऊपर
पतझर की छाया गहरी है,

     अब सपनों में शेष रह गईं,
     सुधियाँ उस चंदन के वन की ।

रात हुई पंछी घर आए,
पथ के सारे स्‍वर सकुचाए,
म्‍लान दिया बत्‍ती की बेला —
थके प्रवासी की आँखों में
आँसू आ-आ कर कुम्‍हलाए,

     कहीं बहुत ही दूर उनींदी
     झाँझ बज रही है पूजन की
     कौन थकान हरे जीवन की ।

गिरिजाकुमार माथुर

गीता / आस्तीक वाजपेयी

सब खत्म हो गया ।
यह मैंने क्या कर दिया ?

तुमने कहा था कि यह सब तुम ही थे
फिर क्यों रोते हैं ये अनाथ ?
ये विधवाएँ, तुम तो यहीं हो।
धर्म की जीत के लिए तुमने मुझसे
कैसा अनर्थ करवा दिया ?

सुनो यह बारिश के बादलों की गर्जन नहीं है ।
यह प्रकृति का रूदन है ।
उसे मैंने चोटिल किया है ।
ये गिद्ध जो रण को ढँके हैं,
यह उन मृत-योद्धाओं के स्वप्न हैं, जिन्हें
मैंने अपूर्ण अवस्था में ध्वस्त कर दिया है ।
तुमने मुझसे यह क्यों करवाया
मैं शापित हूँ, इतनी जीतों का भार
उठाकर हार गया हूँ ।
यह मैंने क्या कर दिया ।

देखो उन कुत्तों को, वे भी रो रहे हैं।
मैंने मनुष्यों का विषाद इतना अधिक
बढ़ा दिया कि वह जानवरों में फैल गया ।
यह बारिश की बूँदें अब इस धरती को
गीला नहीं करती, इसके आँसू सूख चुके हैं ।

मैं ही क्यों, मुझे ही तुमने क्यों समझायी गीता,
मुझसे ही क्यों करवाईं हत्याएँ ।

यशोदानन्दन बोलते हैं, ‘‘क्योंकि विध्वन्स जीवन का
आरम्भ है, मैं ही था तुममें जब तुमने इन योद्धाओं
को ध्वस्त किया लेकिन पहले ही जानते हो तुम गीता ।‘‘

हाय ! अब तुम मुझे सीधे जवाब भी नहीं देते
यह पाप तुमने मुझसे क्यों करवाया
इतनी हत्याएँ कि तीनों लोक इसकी
गन्ध से लिप्त हो गए, मैं ही क्यों ?

क्योंकि तुम ही मुझपर विश्वास कर सकते थे,
तुम ही मुझपर सन्देह ।

आस्तीक वाजपेयी

कोड / ऋतुराज

भाषा को उलट कर बरतना चाहिए

मैं उन्हें नहीं जानता
यानी मैं उन्हें बख़ूबी जानता हूं
वे बहुत बड़े और महान् लोग हैं
यानी वे बहुत ओछे, पिद्दी
और निकृष्ट कोटि के हैं

कहा कि आपने बहुत प्रासंगिक
और सार्थक लेखन किया है
यानी यह अत्यन्त अप्रासंगिक
और बकवास है

आप जैसा प्रतिबद्ध और उदार
दूसरा कोई नहीं
यानी आप जैसा बेईमान और जातिवादी इस धरती पर
कहीं नहीं

अगर अर्थ मंशा में छिपे होते हैं
तो उल्टा बोलने का अभ्यास
ख़ुद-ब-ख़ुद आशय व्यक्त कर देगा

मुस्कराने में घृणा प्रकट होगी
स्वागत में तिरस्कार

आप चाय में शक्कर नहीं लेते
जानता हूँ
यानी आप बहुत ज़हरीले हैं

मैंने आपकी बहुत प्रतीक्षा की
यानी आपके दुर्घटनाग्रस्त होने की ख़बर का
इन्तज़ार किया

वह बहुत कर्तव्यनिष्ठ है
यानी बहुत चापलूस और कामचोर है
वह देश और समाज की
चिन्ता करता है
यानी अपनी सन्तानों का भविष्य सुनहरा
बनाना चाहता है

हमारी भाषा की शिष्टता में
छिपे होते हैं
अनेक हिंसक रूप

विपरीत अर्थ छानने के लिए
और अधिक सुशिक्षित होना होगा

इतना सभ्य और शिक्षित
कि शत्रु को पता तो चले
कि यह मीठी मार है
लेकिन वह उसका प्रतिवाद न कर सके
सिर्फ कहे, आभारी हूँ,
धन्यवाद !!

ऋतुराज

गौरैया / कृष्ण कुमार यादव

चाय की चुस्कियों के बीच
सुबह का अख़बार पढ़ रहा था
अचानक
नज़रें ठिठक गईं
गौरैया शीघ्र ही विलुप्त पक्षियों में ।

वही गौरैया,
जो हर आँगन में
घोंसला लगाया करती
जिसकी फुदक के साथ
हम बड़े हुए।

क्या हमारे बच्चे
इस प्यारी व नन्हीं-सी चिड़िया को
देखने से वंचित रह जाएँगे!
न जाने कितने ही सवाल
दिमाग में उमड़ने लगे ।

बाहर देखा
कंक्रीटों का शहर नज़र आया
पेड़ों का नामो-निशाँ तक नहीं
अब तो लोग घरों में
आँगन भी नहीं बनवाते
एक कमरे के फ्लैट में
चार प्राणी ठुँसे पड़े हैं ।

बच्चे प्रकृति को
निहारना तो दूर
हर कुछ इण्टरनेट पर ही
खंगालना चाहते हैं ।

आख़िर
इन सबके बीच
गौरैया कहाँ से आएगी ?

कृष्ण कुमार यादव

अपनी आँखों से देखता हूँ / अजेय

अपनी आँखों से देखता हूँ


लौटाता हूँ
तमाम चश्मे तेरे दिए हुए
कि सोचता हूँ
अब अपनी ही आँखों से देखूँगा
मैं अपनी धरती

लोग देखता हूँ यहाँ के
सच देखता हूँ उन का
और पकता चला जाता हूँ
उन के घावों और खरोंचों के साथ

देखता हूँ उन के बच्चे
हँसी देखता हूँ उन की
और खिलखिला उठता हूँ
दो घड़ी तितलियों और फूलों के साथ

औरतें देखता हूँ उन की
उनकी रुलाई देखता हूँ
और बूँद बूँद रिसने लगता हूँ
अँधेरी गुफाओं और भूतहे खोहों में

अपनी धरती देखता हूँ
अपनी ही आँखों से
देखता हूँ उस का कोई छूटा हुआ सपना
और लहरा कर उड़ जाता हूँ
अचानक उस के नए आकाश में

लौटाता हूँ ये चश्मे तेरे दिए हुए
कि इन मे से कुछ का
छोटी चीज़ों को बड़ा दिखाना
और कुछ का
दूर की चीज़ों को पास दिखाना
अच्छा न लगा

कि इन मे से कुछ का
साफ शफ्फाक़ चीज़ो को धुँधला दिखाना
और यहाँ तक कि कुछ का
धुँधली चीज़ों को साफ दिखाना
भी अच्छा न लगा


देखता हूँ अपनी यह धरती
अब मेरी अपनी ही आँखों से
जिस के लिए वे बनीं हैं
और देखता हूँ वैसी ही उतनी ही
जैसी जितनी कि वह है
और कोशिश करता हूँ जानने की
क्या यही एक सही तरीक़ा है देखने का !

सितम्बर 15,2011

अजेय

उसे देख कर अपना महबूब / अब्दुल हमीद

उसे देख कर अपना महबूब प्यारा बहुत याद आया
वो जुगनू था उस से हमें इक सितारा बहुत याद आया

यही शाम का वक़्त था घर से निकले के याद आ गया था
बहुत दिन हुए आज वो सब दोबारा बहुत याद आया

सहर जब हुई तो बहुत ख़ामुशी थी ज़मीन शबनमी थी
कभी ख़ाक-ए-दिल में था कोई शरारा बहुत याद आया

बरसते थे बादल धुवाँ फैलता था अजब चार जानिब
फ़ज़ा खिल उठी तो सरापा तुम्हारा बहुत याद आया

कभी उस के बारे में सोचा न था और सोचा तो देखो
समंदर कोई बे-सदा बे-किनारा बहुत याद आया

अब्दुल हमीद

वादा / अरुणाभ सौरभ

भुरभुरी रेतीली ज़मीन पर
पड़ती जेठ की धूप
नदी किनारे की तपती ज़मीन पर
भागता क़दम --
मेरा और तुम्हारा
और जेठ की दोपहरी से
अपने आप हो जाती शाम
और गहराती शाम मे
पानी की छत पर
नाव मे जुगलबन्दी करते हम
हौले-हौले बहते पानी से
सुनता कुछ –- अनबोला निर्वात -–
तुम मुझसे लिपटती
लिपट कर चूमती
चूम कर अपने नाख़ून से
मेरे वक्ष पर लिख देती
प्यार की लम्बी रक्तिम रेखा
......................................
..........सि....स...कि...याँ ....छूटने पर
तुम विदा माँगती
और जेठ की दोपहरी से
नदी किनारे से
रेतीली ज़मीन से
पानी की छत और नाव से
वादा करते कि....
       -- हम फिर मिलेंगे, साथियो !

अरुणाभ सौरभ

फिर भी टपकाए राल ढोलकिया / कुमार मुकुल


आह ढोलकिया वाह ढोलकिया
ऊँची तेरी निगाह ढोलकिया

धारे जन का साज ढोलकिया
दे दल्‍लों को आवाज ढोलकिया

पाता है इक लाख ढोलकिया
उड़ाए जन की खाक ढोलकिया

गालियों से परहेज हो कैसा
वह अगड़ों की शाल ढोलकिया

सवर्णें की ढाल ढोलकिया
ताने जन की पाल ढोलकिया

रंगभेद की बीण बजाकर
लगा लेता चौपाल ढोलकिया

उड़ाए रंग गुलाल ढोलकिया
तू तो बड़ा दलाल ढोलकिया

कहने को बेबाक ढोलकिया
ताके गरेबां चाक ढोलकिया

उड़ाए मत्‍ता माल ढोलकिया
फिर भी टपकाए राल ढोलकिया

कू-सु कर्मों का लेखा रखता
पंडित का पूत कमाल ढोलकिया

पानी कैसा भी खारा हो
गला लेता तू दाल ढोलकिया
आह ढोलकिया ............

कुमार मुकुल

आह संगीत / गिरिराज किराडू

बहुत धीमे से और सबको साफ़ नज़र आ रही घबराहट
के साथ उसने पढ़ना शुरू किया एक ट्रेन के
गुज़रने के बारे में खिड़की के सामने से एक लड़की के
देखने के बारे में उस खिड़की से एक ग्रे टी शर्ट के
उस लड़की को पहन लेने के बारे में एक पुरुष के
उस ग्रे टी शर्ट को एक दूसरे शहर में खरीदने के बारे में उस पुरुष के
हाथों से हुए चाकू के एक वार के बारे में उस चाकू के
एक तीसरे शहर में कई बार चलने के बारे में उस तीसरे शहर में
अपने होने के बारे में उस अपने होने की
निशानदेही के तौर पर हमारे होने के बारे में

हमारी तरफ और बढ़ी हुई घबराहट से देखते
हुए उसने पानी पिया और फिर से पढ़ना शुरू किया मैं तुम्हें
प्रेम कर सकता यदि मैं कोई और होता मुझे बहुत सारे
फेरबदल तब करने होते ट्रेन गुज़रने की बात गलत थी खिड़की में
तुम्हारे खड़े होने की बात की तरह चाकू
दूसरे तीसरे नहीं इसी शहर में चला था
मेरे हाथों से उस पूरे नज़ारे को बहुत धीमे से होता हुआ
देखा था मैंने तेज संगीत की तरह काटता हुआ
चाकू आह संगीत हरकहीं हरवक्त बजता हुआ बेमतलब उसे बयान
में होना होता बहुत सारे फेरबदल तब होने होते
तुम्हारे लिए कोई टी शर्ट खुद ही खरीदना होती तब शायद ग्रे ही....

गिरीराज किराडू

फ़िराक़ से भी गए हम विसाल से भी गए / 'अज़ीज़' हामिद मदनी

फ़िराक़ से भी गए हम विसाल से भी गए
सुबुक हुए हैं तो ऐश-ए-मलाल से भी गए

जो बुत-कदे में थे वो साहिबान-ए-कश्फ़-ओ-कमाल
हरम में आए तो कश्फ़ ओ कमाल से भी गए

उसी निगाह की नरमी से डगमगाए क़दम
उसी निगाह के तेवर सँभाल से भी गए

ग़म-ए-हयात ओ ग़म-ए-दोस्त की कशाकश में
हम ऐसे लोग तो रंज ओ मलाल से भी गए

गुल ओ समर का तो रोना अलग रहा लेकिन
ये ग़म के फ़र्क़-ए-हराम-ओ-हलाल से भी गए

वो लोग जिन से तेरी बज़्म में थे हँगामे
गए तो क्या तेरी बज़्म-ए-ख़याल से भी गए

हम ऐसे कौन थे लेकिन क़फ़स की ये दुनिया
के पर-शिकस्तों में अपनी मिसाल से भी गए

चराग़-ए-बज़्म अभी जान-ए-अंजुमन न बुझा
के ये बुझा तो तेरे ख़द्दों-ख़ाल से भी गए

'अज़ीज़' हामिद मदनी

खुल गई नाव / अज्ञेय

       खुल गई नाव
घिर आई संझा, सूरज
        डूबा सागर-तीरे।

धुंधले पड़ते से जल-पंछी
भर धीरज से
        मूक लगे मंडराने,
सूना तारा उगा
चमक कर
        साथी लगा बुलाने।

तब फिर सिहरी हवा
लहरियाँ काँपीं
तब फिर मूर्छित
व्यथा विदा की
        जागी धीरे-धीरे।

स्वेज अदन (जहाज में), 5 फरवरी, 1956

अज्ञेय

वापस न लौटने की ख़बर छोड़ गए हो / कविता किरण

वापस न लौटने की ख़बर छोड़ गए हो
मैंने सुना है तुम ये शहर छोड़ गए हो

दीवाने लोग मेरी कलम चूम रहे हैं
तुम मेरी ग़ज़ल में वो असर छोड़ गए हो

सारा ज़माना तुमको मुझ में ढूंढ रहा है
तुम हो की ख़ुद को जाने किधर छोड़ गए हो

दामन चुरानेवाले मुझको ये तो दे बता
क्यों मेरे पीछे अपनी नज़र छोड़ गए हो

मंजिल की है ख़बर न रास्तों का है पता
ये मेरे लिए कैसा सफर छोड़ गए हो

ले तो गए हो जान-जिगर साथ ऐ 'किरण'
ले जाओ अपना दिल भी अगर छोड़ गए हो

कविता "किरण"

पीले फूल कीकर के / किरण मल्होत्रा

सुर्ख़ फूल गुलाब के
बिंध जाते
देवों की माला में
सफेद मोगरा, मोतिया
सज जाते
सुंदरी के गजरों में
रजनीगंधा, डहेलिया
खिले रहते
गुलदानों में
और
पीले फूल कीकर के
बिखरे रहते
खुले मैदानों में

बंधे हैं
गुलाब, मोगरा, मोतिया
रजनीगंधा और डहेलिया
सभ्यता की जंजीरों में
बिखरे चाहे
उन्मुक्त हैं लेकिन
फूल पीले कीकर के
हवा की दिशाओं
संग संग बह जाते
बरखा में
भीगे भीगे से
वहीं पड़े मुस्कुराते

देवों की माला में
सुंदरी के गजरों में
बड़े गुलदानों में
माना नहीं कभी
सज पाते
फिर भी लेकिन
ज़िन्दगी के गीत
गुनगुनाते

मोल नहीं
कोई उनका
ख्याल नहीं
किसी को उनका
इन सब बातों से पार
माँ की गोद में
मुस्काते
वहीं पड़े अलसाते

किरण मल्होत्रा

जवानी हरीफ़-ए-सितम है तो / ज़ैदी

जवानी हरीफ़-ए-सितम है तो क्या ग़म
तग़य्युर ही अगला क़दम है तो क्या ग़म

हर इक शय है फ़ानी तो ये ग़म भी फ़ानी
मेरी आँख गर आज नाम है तो क्या ग़म

मेरे हाथ सुलझा ही लेंगे किसी दिन
अभी ज़ुल्फ़-ए-हस्ती में ख़म है तो क्या ग़म

ख़ुशी कुछ तेरे ही लिए तो नहीं है
अगर हक मेरा आज कम है तो क्या ग़म

मेरे ख़ूँ पसीने से गुलशन बनेंगे
तेरे बस में अब्र-ए-करम है तो क्या ग़म

मेरा कारवाँ बढ़ रहा है बढ़ेगा
अगर रुख़ पे गर्द-ए-आलम है तो क्या ग़म

ये माना के रह-बर नहीं है मिसाली
मगर अपने सीने में दम है तो क्या ग़म

मेरा कारवाँ आप रह-बर है अपना
ये शीराज़ा जब तक बहम है तो क्या ग़म

तेरे पास तबल ओ आलम हैं तो होंगे
मेरे पास ज़ोर-ए-क़लम है तो क्या ग़म

अली जव्वाद 'ज़ैदी'

Sunday, April 13, 2014

जो कुछ तेरे नाम / कन्हैयालाल नंदन

जो कुछ तेरे नाम लिखा है, लिक्खा दाने-दाने में
वह तो तुझे मिलेगा, चाहे रक्खा हो तहखाने में

तूने इक फ़रियाद लगाई उसने हफ्ता भर माँगा
कितने हफ्ते और लगेंगे उस हफ्ते के आने में

एक दिए की ज़िद है आँधी में भी जलते रहने की
हमदर्दी हो तो फिर हिस्सेदारी करो बचाने में

आँसू आए देख टूटता छप्पर दीवारो-दर को
आख़िर घर था, बरसों लग जाते हैं उसे बनाने में

कुछ तो सोचो रोज़ वहीं क्यों जाकर मरना होता है
शाम की कुछ तो साज़िश होगी सूरज तुम्हें दबाने में

जाकर तूफ़ानों से कह दो जितना चाहें तेज़ चलें
कश्ती को अभ्यास हो गया लहरों से लड़ जाने में

कौन मुहब्बत के चक्कर में पड़े बुरी शै है यारो!
मेरे दोस्त पड़े थे, सदियों मारे फिर ज़माने में

कन्हैयालाल नंदन

रिश्ते (हाइकु) / अशोक कुमार शुक्ला

(1)
कंटीली झाड
जीवन बगिया में
उलझे रिश्ते
(2)
गुणन भाग
के गणित ज्ञान मे
हासिल रिश्ते
(3)
खूंटी पे टंगे
अंधे बंद कमरे
सिसके रिश्ते
(4)
जलती हुयी
गीली लकडी जैसे
सुलगेे रिश्ते
(5)
मौत का कुंआ
देखकर बच्चे से
ठिठके रिश्ते
(6)
पुरानी चोट
नासूर बन कर
रिसते रिश्ते
(7)
दरवाजे की
दरारो से झांकते
भोले से रिश्ते
(8)
पहली बर्षा
मिट्टी की खुशबू
महके रिश्ते
(9)
पागल सांड
बिदकता फिरता
बिगडे रिश्ते
(10)
बट्टे खाते में
पडी रकम जैसे
निस्तेज रिश्ते
(11)
दीमक अहं
शीशम के संबंध
खोखले रिश्ते

अशोक कुमार शुक्ला

सरशार हूँ छलकते हुए जाम की क़सम / अख़्तर अंसारी

सरशार हूँ छलकते हुए जाम की क़सम
मस्त-ए-शराब-ए-शौक़ हूँ ख़य्याम की क़सम

इशरत-फ़रोश था मेरा गुज़रा हुआ शबाब
कहता हूँ खा के इशरत-ए-अय्याम की क़सम

होती थी सुब्ह-ए-ईद मेरी सुब्ह पर निसार
खाती थी शाम-ए-ऐश मेरी शाम की क़सम

'अख़्तर' मज़ाक़-ए-दर्द का मारा हुआ हूँ मैं
खाते हैं अहल-ए-दर्द मेरे नाम की क़सम

अख़्तर अंसारी

फूलों का काँटों-सा होना/ उदयप्रताप सिंह

काँटे तो काँटे होते हैं उनके चुभने का क्या रोना ।
मुझको तो अखरा करता है फूलों का काँटों-सा होना ।

युग-युग तक उनकी मिट्टी से फूलों की ख़ुशबू आती है
जिनका जीवन ध्येय रहा है कांटे चुनना कलियाँ बोना ।

बदनामी के पर होते हैं अपने आप उड़ा करती है
मेरे अश्रु बहें बह जाएँ तुम अपना दामन न भिगोना ।

दुनिया वालों की महफ़िल में पहली पंक्ति उन्हें मिलती है
जिनको आता है अवसर पर छुपकर हँसना बन कर रोना ।

वाणी के नभ में दिनकर-सा ‘उदय’ नहीं तू हो सकता है
अगर नहीं तूने सीखा है नये घावों में क़लम डुबोना ।

उदयप्रताप सिंह

शोभा-यात्रा / अमरनाथ श्रीवास्तव

प्रत्यंचित भौंहों के आगे
समझौते केवल समझौते।

भीतर चुभन सुई की,
बाहर सन्धि-पत्र पढ़ती मुस्कानें।
जिस पर मेरे हस्ताक्षर हैं,
कैसे हैं ईश्वर ही जाने।


आंधी से आतंकित चेहरे
गर्दख़ोर रंगीन मुखौटे।

जी होता आकाश-कुसुम को,
एक बार बाहों में भर लें।
जी होता एकान्त क्षणों में
अपने को सम्बोधित कर लें।


लेकिन भीड़ भरी गलियाँ हैं
काग़ज़ के फूलों के न्योते।

झेल रहा हूँ शोभा-यात्रा
में चलते हाथी का जीवन।
जिसके ऊपर मोती की झालर
लेकिन अंकुश का शासन।


अधजल घट से छलक रहे हैं
पीठ चढ़े जो सजे कठौते।

अमरनाथ श्रीवास्तव

तब तुम क्या करोगे / ओमप्रकाश वाल्‍मीकि

यदि तुम्हें,
धकेलकर गांव से बाहर कर दिया जाय
पानी तक न लेने दिया जाय कुएं से
दुत्कारा फटकारा जाय चिल-चिलाती दोपहर में
कहा जाय तोड़ने को पत्थर
काम के बदले
दिया जाय खाने को जूठन
तब तुम क्या करोगे?
 


 
यदि तुम्हें,
मरे जानवर को खींचकर
ले जाने के लिए कहा जाय
और
कहा जाय ढोने को
पूरे परिवार का मैला
पहनने को दी जाय उतरन
तब तुम क्या करोगे ?
 



यदि तुम्हें,
पुस्तकों से दूर रखा जाय
जाने नहीं दिया जाय
विद्या मंदिर की चौखट तक
ढिबरी की मंद रोशनी में
काली पुती दीवारों पर
ईसा की तरह टांग दिया जाय
तब तुम क्या करोगे?
 



यदि तुम्हें,
रहने को दिया जाय
फूस का कच्चा घर
वक्त-बे-वक्त फूंक कर जिसे
स्वाहा कर दिया जाय
बर्षा की रातों में
घुटने-घुटने पानी में
सोने को कहा जाय
तब तुम क्या करोगे?
 



यदि तुम्हें,
नदी के तेज बहाव में
उल्टा बहना पड़े
दर्द का दरवाजा खोलकर
भूख से जूझना पड़े
भेजना पड़े नई नवेली दुल्हन को
पहली रात ठाकुर की हवेली
तब तुम क्या करोगे?
 



यदि तुम्हें,
अपने ही देश में नकार दिया जाय
मानकर बंधुआ
छीन लिए जायं अधिकार सभी
जला दी जाय समूची सभ्यता तुम्हारी
नोच-नोच कर
फेंक दिए जाएं
गौरव में इतिहास के पृष्ठ तुम्हारे
तब तुम क्या करोगे?
 



यदि तुम्हें,
वोट डालने से रोका जाय
कर दिया जाय लहू-लुहान
पीट-पीट कर लोकतंत्र के नाम पर
याद दिलाया जाय जाति का ओछापन
दुर्गन्ध भरा हो जीवन
हाथ में पड़ गये हों छाले
फिर भी कहा जाय
खोदो नदी नाले
तब तुम क्या करोगे?
 



यदि तुम्हें ,
सरे आम बेइज्जत किया जाय
छीन ली जाय संपत्ति तुम्हारी
धर्म के नाम पर
कहा जाय बनने को देवदासी
तुम्हारी स्त्रियों को
कराई जाय उनसे वेश्यावृत्ति
तब तुम क्या करोगे?
 



साफ सुथरा रंग तुम्हारा
झुलस कर सांवला पड़ जायेगा
खो जायेगा आंखों का सलोनापन
तब तुम कागज पर
नहीं लिख पाओगे
सत्यम, शिवम, सुन्दरम!
देवी-देवताओं के वंशज तुम
हो जाओगे लूले लंगड़े और अपाहिज
जो जीना पड़ जाय युगों-युगों तक
मेरी तरह?
तब तुम क्या करोगे?

ओमप्रकाश वाल्‍मीकि

तीन-पांच सितारा होटल / कुमार मुकुल

सिर पर मुकुट बांधे
यहां का दरबान
राजा लगता है

और प्रिंस कोट डटाए बेयरे
लगते हैं
राजकुमारों से

मधुर मुस्‍कान फेंकती
रिसेप्‍सनिस्‍टस
राजकुमारियां लगती हैं

बाकी

वही

अकाटू-बकाटू लोग
दिखते हैं
यहां से
वहां तक ...

कुमार मुकुल

जुगनू / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

पेड़ पर रात की अँधेरी में।
जुगनुओं में पड़ाव हैं डाले।
या दिवाली मना चुड़ैलों ने।
आज हैं सैकड़ों दिये बाले।1।

तो उँजाला न रात में होता।
बादलों से भरे अँधेरे में।
जो न होती जमात जुगनू की।
तो न बलते दिये बसेरे में।2।

रात बरसात की अँधेरे में।
तो न फिरती बखेरते मोती।
चाँदतारा पहन नहीं पाती।
जुगनुओं में न जोत जो होती।3।

जगमगाएँ न किस तरह जुगनू।
वे गये प्यार साथ पाले हैं।
क्यों चमकते नहीं अँधेरे में।
रात की आँख के उँजाले हैं।4।

हैं कभी छिपते चमकते हैं कभी।
झोंकते किस आँख में ए धूल हैं।
रात में जुगनू रहे हैं जगमगा।
या निराली बेलियों के फूल हैं।5।

स्याह चादर अँधेरी रात की।
यह सुनहला काम किसने है किया।
जगमगाते जुगनुओं की जोत है।
या जिनों का जुगजुगाता है दिया।6।

हम चमकते जुगनुओं को क्या कहें।
डालियों के एक फबीले माल हैं।
हैं अँधेरे के लिए हीरे बड़े।
रात के गोदी भरे ये लाल हैं।7।

मोल होते भी बड़े अनमोल हैं।
जगमगाते रात में दोनों रहें।
लाल दमड़ी का दिया है, क्यों न तो।
जुगनुओं को लाल गुदड़ी का कहें।8।

क्यों न जुगनू की जमातों को कहें।
जोत जीती जागती न्यारी कलें।
आँधियाँ इनको बुझा पाती नहीं।
ये दिये वे हैं कि पानी में बलें।9।

जब कि पीछे पड़ा उँजाला है।
तब चमक क्यों सकें उँजेरे में।
हैं किसी काम के नहीं जुगनू।
जब चमकते मिले अँधेरे में।10।

रात बीते निकल पड़े सूरज।
रह सकेगी न बात जुगनू की।
सामने एक जोत वाले के।
क्या करेगी जमात जुगनू की।11।

जी जले और जुगनू
जगमगाते रतन जड़े जुगनू।
कलमुँही रात के गले के हैं।
जुगनुओं की जमात है फैली।
या अँधेरे जिगर जले के हैं।12।

जो चमक कर सदा छिपा, उसकी।
वह हमें याद क्यों दिलाता है।
तब जले-तब न क्यों कहें उसको।
जब कि जुगनू हमें जलाता है।13।

जगमगाते ही हमें जुगनू मिले।
झड़ लगी, ओले गिरे, आँधी बही।
आप जल कर हैं जलाते और को।
आग पानी में लगाते हैं यही।14।

हैं बने बेचैन जुगनू घूमते।
कौन से दुख बे तरह हैं खल रहे।
है बुझा पाता न उसको मेंह-जल।
हैं न जाने किस जलन से जल रहे।15।

बे तरह वह क्यों जलाता है हमें।
है सितम उसका नहीं जाता सहा।
क्या रहा करता उँजाला और को।
आप जुगनू जब अँधेरे में रहा।16।

कौन जलते को जलाता है नहीं।
तर बनीं बरसात रातें-देख लीं।
जल बरसना देख मेघों का लिया।
थाम दिल जुगनू-जमातें देख लीं।17।

मेघ काले, काल क्यों हैं हो रहे।
किसलिए कल, कलमुही रातें हरें।
बेकलों को बेतरह बेकल बना।
कल-मुँहे जुगनू न मुँह काला करें।18।

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

शहर में उसके दुःख बसता है / गगन गिल

शहर में उसके
दोस्त नहीं,
उसके न होने का दुःख बसता है

दोस्त तो है
किसी दूसरे शहर में
किसी दूर दराज घर में
या दफ्तर में –
उसकी आँखों से दूर
उसकी धडकन से दूर
उसकी चेतना से दूर

कुछ भी हो सकता है वहां उसके साथ
रिस सकती है गैस
भडक सकते हैं दंगे
गिर सकता है दोस्त उसका
गश खा कर यूँ ही
सरे राह,
और अगर सब ठीक चलता रहे
तो भी हो सकता है वह उदास
यूँ ही, बेवजह

पता नहीं वह कितना सुरक्षित होता
हर अनहोनी से,
अगर वह होती उसके शहर में
कितना सुखी होता?
होता भी कि कि नहीं?

लेकिन अगर वह होता उसके शहर में
वह देखती उसके बच्चे का मुँह
होता अगर उसके पड़ोस में
वह लगाती उसके बच्चे को सीने से

शायद होता कुछ कम इससे खालीपन
न भी होता तो
बाहर लौटती
भूली-सी एक साँस

एक बहुत मुश्किल लगनेवाले दिन
जाती वह उसके घर
भर लती आक्सीजन
आनेवाले दिनों की

लेकिन दोस्त होता जो उसके शहर
तो कोई दिन भला
मुश्किल क्यों होता?

पता नहीं उसके रहते भी
नींद चैन की उसे
आती कि नहीं?

सीने में सोग था जिसका
उस बच्चे के प्रेत की
तब भी मुक्ति होती कि नहीं?

कह पाती कि नही
किसी-किसी शाम खुलते
सुख- दुःख के रहस्य की बात?

शहर में उसके
दोस्त नहीं
उसका दुख बसता है.

गगन गिल

क़िताब / अरुण चन्द्र रॉय

1.
क्या
तुमने भी
महसूस किया है
इन दिनों
ख़ूबसूरत होने लगे हैं
क़िताबो की जिल्द
और
पन्ने पड़े हैं
खाली

2.
क्या
तुम्हे भी
दीखता है
इन दिनों
क़िताबों पर पड़ी
धूल का रंग
हो गया है
कुछ ज़्यादा ही
काला
और
कहते हैं सब
आसमान है साफ़

3.
क्या
तुम्हे भी
क़िताबो के पन्नों की महक
लग रही है कुछ
बारूदी-सी
और उठाए नहीं
हमने हथियार
बहुत दिनों से

4..
क्या
तुमने पाया है कि
क़िताब के बीच
रखा है
एक सूखा गुलाब
जबकि
ताज़ी है
उसकी महक
अब भी
हम दोनों के भीतर

अरुण चन्द्र रॉय

चीख़ / अशोक वाजपेयी

यह बिल्कुल मुमकिन था
कि अपने को बिना जोखिम में डाले
कर दूँ इंकार
उस चीख़ से,
जैसे आम हड़ताल के दिनों में
मरघिल्ला बाबू, छुट्टी की दरख़्वास्त भेजकर
बना रहना चाहता है वफ़ादार
दोनों तरफ़।

अंधेरा था
इमारत की उस काई-भीगी दीवार पर,
कुछ ठंडक-सी भी
और मेरी चाहत की कोशिश से सटकर
खड़ी थी वह बेवकूफ़-सी लड़की।


थोड़ा दमखम होता
तो मैं शायद चाट सकता था
अपनी कुत्ता-जीभ से
उसका गदगदा पका हुआ शरीर।
आखिर मैं अफ़सर था,
मेरी जेब में रुपिया था, चालाकी थी,
संविधान की गारंटी थी।
मेरी बीबी इकलौते बेटे के साथ बाहर थी
और मेरे चपरासी हड़ताल पर।

चाहत और हिम्मत के बीच
थोड़ा-सा शर्मनाक फ़ासला था
बल्कि एक लिजलिजी-सी दरार
जिसमें वह लड़की गप्प से बिला गई।
अब सवाल यह है कि चीख़ का क्या हुआ?
क्या होना था? वह सदियों पहले
आदमी की थी
जिसे अपमानित होने पर
चीख़ने की फ़ुरसत थी।


(1971)

अशोक वाजपेयी

हुस्न के लाखों रंग / आनंद बख़्शी

 
हुस्न के लाखों रंग
कौन सा रंग देखोगे
आग है ये बदन
कौन सा अंग देखोगे

गालों के ये फूल गुलाबी
इनकी रंगत क्या जानो
होंठों के दो जाम शराबी
इनकी लज़्ज़त क्या जानो
ज़ुल्फ़ों की ये छाँव घनेरी
इनकी राहत क्या जानो
हुस्न के लाखोन रंग ...

पदर्ए में क्या छुपा हुआ है
तेरी नज़र ये क्या जाने
इन आँखों के पीछे कितने
बसे हुए हैं मैखाने
पीके देखो जाम नज़र का
हो जाओगे दीवाने
हुस्न के लाखोन रंग ...

आनंद बख़्शी

आँसू / आस्तीक वाजपेयी

मेरे आँसू तुम्हें देखकर
थम जाते हैं,

मेरा चेहरा हिमालय की
एक भीषण चोटी की तरह
उन्हें जमा लेता है ।

मुझे पता नहीं कि तुम सामने हो,

या आँसुओं ने आँखों पर दया कर
भ्रम पैदा कर दिया ।

आस्तीक वाजपेयी

Saturday, April 12, 2014

आधे से आधा चुन लेता / अमित कल्ला

आधे
से
आधा
चुन लेता

अपने आप
पानी सा
सब पर प्रकट होता है

चाक चढा समय
उस भूले दृश्य को
गंतव्य की
साझेदारी देता ,
पैने - पैने शब्दों की
विसर्जित मात्राओं
के साथ
अगली कडियाँ जोड़
फिर
दोहराता
तराशने वाला
तिलिस्मी हिसाब ,

अधिकांश
सिर्फ
आभास में
रख देते

कोई
आधे
से
आधा
चुन लेता

अमित कल्ला

मेरे देश की आँखें / अज्ञेय

नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं
पुते गालों के ऊपर
नकली भवों के नीचे
छाया प्यार के छलावे बिछाती
मुकुर से उठाई हुई
मुस्कान मुस्कुराती
ये आँखें -
नहीं, ये मेरे देश की नहीं हैं...
 
तनाव से झुर्रियाँ पड़ी कोरों की दरार से
शरारे छोड़ती घृणा से सिकुड़ी पुतलियाँ -
नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं...
 
वन डालियों के बीच से
चौंकी अनपहचानी
कभी झाँकती हैं
वे आँखें,
मेरे देश की आँखें,
खेतों के पार
मेड़ की लीक धारे
क्षिति-रेखा को खोजती
सूनी कभी ताकती हैं
वे आँखें...
 
उसने
झुकी कमर सीधी की
माथे से पसीना पोछा
डलिया हाथ से छोड़ी
और उड़ी धूल के बादल के
बीच में से झलमलाते
जाड़ों की अमावस में से
मैले चाँद-चेहरे सुकचाते
में टँकी थकी पलकें
उठायीं -
और कितने काल-सागरों के पार तैर आयीं
मेरे देश की आँखें...

(पुरी-कोणार्क, 2 जनवरी 1980)

अज्ञेय

क़ुर्बतो के बीच जैसे फ़ासला रहने लगे / आलम खुर्शीद

क़ुर्बतो के बीच जैसे फ़ासला रहने लगे
यूँ किसी के साथ रहकर हम जुदा रहने लगे
 
किस भरोसे पर किसी से आश्नाई कीजिये
आशना चेहरे भी तो नाआशना रहने लगे
 
हर सदा ख़ाली मकानों से पलट आने लगी
क्या पता अब किस जगह अहलेवफ़ा रहने लगे
 
रंग ओ रौगन बाम ओ दर के उड़ ही जाते हैं जनाब
जब किसी के घर में कोई दूसरा रहने लगे
 
हिज्र कि लज़्ज़त जरा उस के मकीं से पूछिये
हर घड़ी जिस घर का दरवाज़ा खुला रहने लगे
 
इश्क़ में तहजीब के हैं और ही कुछ सिलसिले
तुझ से हो कर हम खफ़ा, खुद से खफ़ा रहने लगे
 
फिर पुरानी याद कोई दिल में यूँ रहने लगी
इक खंडहर में जिस तरह जलता दिया रहने लगे
 
आसमाँ से चाँद उतरेगा भला क्यों ख़ाक पर
तुम भी आलम वाहमों में मुब्तला रहने लगे

आलम खुर्शीद

एक नन्ही चिड़िया / किशोर कुमार खोरेन्द्र

यह कैसा है महावृत्त
जो है अपरिमित

जिसमें व्यास है न त्रिज्या

उसे छूना जितना चाहूँ
उसकी परिधि भी लगती है
तब क्षितिज सी मिथ्या

बिना केंद्र बिंदु के
किस प्रकार से -
खींची है किसने यह
बिना आकार की यह गोलमाल दुनिया

न ओर का पता, न छोर का
फिर भी -
आकाश को भी
अपने परों से ..नाप रही है

हर मन के घोंसलों से ......उड़कर
एक नन्ही चिड़िया

किशोर कुमार खोरेन्द्र

इक ज़माना था कि जब था कच्चे धागों का भरम / गणेश बिहारी 'तर्ज़'

इक ज़माना था कि जब था कच्चे धागों का भरम
कौन अब समझेगा कदरें रेशमी ज़ंजीर की

त्याग, चाहत, प्यार, नफ़रत, कह रहे हैं आज भी
हम सभी हैं सूरतें बदली हुई ज़ंजीर की

किस को अपना दुःख सुनाएँ किस से अब माँगें मदद
बात करता है तो वो भी इक नई ज़ंजीर की

गणेश बिहारी 'तर्ज़'

इन सपनों को कौन गाएगा ? / अजेय


सपने में गाता हूँ एक प्रेम गीत
मेरी मुट्ठी में माईक बेहद ठण्डा है
मुझे अपनी भारी खुरदुरी आवाज़ पर यक़ीन नहीं होता
एक लड़का ढीली पेंट और लम्बे बालों वाला
ऑडिएंस में उठा है
और झूम कर नाचा है

बॉब मार्ले और बराक ओबामा
ने मेरे साथ हाथ मिलाया है
और हम सब ने मिल कर
उस मंच से एक पहाड़ी गीत गाया है

सपने मे बेहद मुलायम है उन की घुँघराली लटें
मैं ऊन कातने लगा हूँ ऐसे
कि तकलियाँ चरखा हो गईं हैं
चरखे स्पिनिंग मशीन
रफल,[1] टसर[2] और पशम[3]
का जंजाल है
एक बुनकर कबीर डूबा हुआ अपने ‘पिटलूम ‘ में
सूत की महीन तंत टटोल रहा
ताना बाना लपेट रहा सिकुड़ा हुआ कोकून में
मेरा सपना शहर के आऊट्स्कर्टस में
एक दागदार चेहरे वाला आशंकित आर्टीज़न है

यह सपना मुझे सोचने की वजह देता है
इस सपने में हमेशा डूबा नहीं रह सकता
इस सपने से मुझे एक फ्लाईट मिलती है

एक बेचैन मुक्तिबोध दिखता है
नेब्युला मे विचरण करता
खोजता अद्भुत शक्तिमान द्युतिकण
कैसे साध रहा आग और बिजली को मेरा वह पुरखा
खींच रहा तनी हुई पेशियों से बाहरी खगोल की तरंगें
बारहा कौंध जाती हैं सपने में
बेंजमिन फ्रेंकलिन की पतंगें

सपने में बारिश होती है
एक लाख अठसठ हज़ार तीन सौ पिचहत्तर डॉल्फिन
तड़प कर गिरते हैं एक साथ पृथ्वी की ओर
हिरन हो जाते हैं दयार के गहरे नीले जंगलों में

एक साँवली औरत पीतल की बाँसुरी बजाती है
उस की लम्बी तान पर सवार
‘भूण्डा’[4] खेलता हूँ चूड़धार के उस पार
खड़ा पत्थर से पौड़िया
और पौड़िया से चौपाल तक
नीचे शिलाई की तराई में हो हो करते हैं हाथ उठा कर
दढ़ियल क़द्दावर ‘खूँद’[5]

बहुत संभल कर फिसल रहा हूँ
मूँज की कच्ची अनगढ़ रस्सी पर
जो अब टूटी कि अब टूटी
इस ऊँचाई से गिरूँगा
हवा मे ही प्राण निकल जाएंगे
पर मुझे करना ही है यह कारनामा
देवता का चुना हुआ बेड़ा[6] हूँ अभिशप्त
मेरा मरना शुभ होगा खूँदों के लिए
और मेरी बेवाओं–बच्चों के लिए
सफेद कपड़ों मे जो यहाँ से ऐसे दिखते हैं
जैसे मासूम भेड़ें और मेमेने  !

इस ऊँचाई से मुझे हिम्मत मिलती है और ऊँचा उड़ने की
इस ऊँचाई मे एक अलग ही ज़हरीला रोमाँच है
इस ऊँचाई से मुझे दृष्टि मिलती है नीचे की चीज़ें देखने की
  
एक ‘गद्दी’[7] दिखता है बदहवास
जिस की भेड़ें एक एक कर के गुम हो रहीं हैं
सपने मे कोई राजा नहीं है
जहाँ गुहार लगाई जा सके
वो सारे के सारे कसाई उस के पहचाने हुए हैं
जिन्हों ने उस का माल चुराया है
जो आस्तीनों में चापड़ और तेग छिपाए हैं
और ताक़त की तरह खड़ा रहता उन के पीछे
पूरा एक बाज़ार .......
एक ‘बणबला’[8] घातक चाँदनी रातों की
ठण्डी तेज़ाबी आँखों से घूरती
पिछवाड़ा खाली और सामने से सालम जनानी
दाहिना स्तन बाँयें काँधे पर फरकाए हुए
बिखरे बाल , अलफ नंगी
कुत्ता खामोश हो गया है
ऐसी मनहूस है यह घड़ी कि
अलाव भी बुझ गया है डेरे के बाहर
कि जलती टहनी उठा के बला को मार भगाया जाए
गद्दी का कमज़ोर हाथ चिपक गया है
उस की पसीजती छाती पर .... वह नुआड़ा[9] गाना चाहता है
धूड़ू स्वामी की एंचली[10]
उस के बोल नहीं फूट रहे
वह अपना चोला फाड़ देना चाहता है
उस के पूरे शरीर में काँटे चुभ रहे हैं

एक दहशत है इस गद्दी के सपने में
और एक हिदायत
लगातार दौड़ते रहने की
कि सपने में ही मिल सकता है
हवा में तैरता वह आखिरी नायाब जीवाणु
और उस का बेटा जेनेटिक इंजीनियर
आई आई टी बेंगलुरू के क्लासरूम में
सब से अग्रिम पंक्ति में
सफेद शर्ट और नीली टाई वाला
उम्मीद के एक रौशन झौंके सा
स्मार्ट युवा कम्प्यूटर एनिमेटर
खड़ा कर रहा है एक विशाल रेवड़
फिर से बहुत पुराने टी - रेक्स
और आग उगलते ड्रेगनों का !

और मैं इस सपने को आगे नहीं गा सकता इस सपने का प्रेम गीत
मेरी मुट्ठियों से भाप बन कर उड़ गया है
और आप इस सपने को नाच नहीं सकते यह सपना अभी चुपचाप सुना और सुनाया जाना है ।

सुमनम 19.12.2010
  

अजेय

प्यारी के नयनाँ हैं जैसे कटारे / क़ुली 'क़ुतुब' शाह

प्यारी के नयनाँ हैं जैसे कटारे
न सम उस के अंगे कोई हैं धारे

असर तुज मोहब्बत का जिस कूँ चड़ेगा
तेरे लाल बिन उस कूँ कोई न उतारे

दो लोचन हैं तेरे निसंग चोर रावत
ओ नो सूँ दिलेरी न कर सब ही हारे

सुहाता है तुज कूँ गुमाँ होर ग़रूरी
के माते अहे तुज हुस्न के प्यारे

साकियाँ में तू है मिर्ग-नैनी छबेली
सजन तू नहीं होते तुज थे किनारे

अजब चपलख़ाई है तेरी नयन में
के खंजन नमन एक तिल कईं न ठारे

नबी सदक़े ‘कुतबा’ सूँ पद पीवे जम-जम
वो चंद मुख के जिस मुख थे जूती सिंगारे

क़ुली 'क़ुतुब' शाह

सुखन में रंग तुम्हारे ख़याल ही के तो हैं / इरफ़ान सिद्दीकी

सुखन में रंग तुम्हारे ख़याल ही के तो हैं
ये सब करिश्मे हवाए-विसाल ही के तो हैं

कहा था तुमने कि लाता है कौन इश्क़ की ताब
सो हम जवाब तुम्हारे सवाल ही के तो हैं

ज़रा सी बात है दिल में, अगर बयाँ हो जाय
तमाम मसअले इज़हारे-हाल ही के तो हैं

यहाँ भी इसके सिवा और क्या नसीब हमें
खुतन में रह के भी चश्मे-ग़िज़ाल ही के तो हैं

हवा की ज़द पे हमारा सफ़र है कितनी देर
चराग़ हम किसी शामे-ज़वाल ही के तो हैं

इरफ़ान सिद्दीकी

मैं प्रगति का गीत गाता जा रहा हूँ / केदारनाथ पाण्डेय

प्रति चरण पर मैं प्रगति का गीत गाता जा रहा हूँ।

जा रहा हूँ मैं अकेला
शून्य पथ वीरान सारा
विघ्न की बदली मचलकर
है छिपाती लक्ष्य तारा
दूर मंज़िल है न जाने
क्यों स्वयं मुस्का रहा हूँ॥
जलधि सा गम्भीर हूँ मैं
चेतना मेरी निराली
प्रगति का संदेशवाहक
लौट आऊँगा न खाली
कंटकों के बीच सुमनों की
मधुरिमा पा रहा हूँ
तुम करो उपहास पर
मैं तो हूँ सदा का विजेता
तुम समय की मांग पर
सत्वर-नवल संसृति प्रजेता
आज तक की निज अगति पर
मैं स्वयं शरमा रहा हूँ॥
आज सहमी सी हवाएँ
मन्द-मन्थर चल रही हैं
दिव्य जीवन की सुनहली रश्मियाँ
भी बल रही हैं
मैं युगों पर निज प्रगति का
चिह्न देता आ रहा हूँ॥
अखिल वसुधा तो बहुत
पहले बिहँसते माप छोड़ा
अभी तो कल ही बड़ा
एवरेस्ट का अभिमान तोड़ा।
रुक अभी जा लक्ष्य पर निज
अतुल बल बतला रहा हूँ॥
केदारनाथ पाण्डेय

बड़े भाई से बातें / आभा बोधिसत्त्व

( उन तमाम भाइयों के लिए जो जीवन में असफल रहे)

भाई तुम ईश्वर नहीं
भाई हो
भाई तुम पानी नहीं भाई हो
बल्कि कह सकती हूँ साफ-साफ
कि पिता कि कोई जगह नहीं तुम्हारे आगे।

लेकिन भाई तुम ही बताओ
उस भाई का क्या करें
जो तुम्हारी ही तरह भाई है हमारा
जो खोटे सिक्के सा फिर रहा है
इस मुट्ठी से उस गल्ले तक
मारा-मारा।

जब कि
उस भाई ने
किया है छल कहीं ना कहीं खुद के साथ ही
तो क्या उसकी सजा कहें भाई को
या कि

सिर्फ गाहे-ब-गाहे
गलबहियाँ दे कर सिर्फ भाई कहें उस
भाई को।

भाई जो मर्यादा है मुकुट है किसी का
उस भाई का क्या करें
उसे रहने दें यूँ ही
गुजरने दें ।

माँ-बाप तो सिर्फ जन्म देते हैं
युद्ध में तो भाई ही भाई को हथियार देता है
सो युद्ध के संगी रहे भाई को हथियार दो
युद्ध के गुर सिखाओ भाई को ।

तुम तो जानते हो
कि उस भाई ने हमेशा मुंह की खाई है
जिया है तिल-तिल कर
भाई तुम तो
सब कुछ जानते ही नहीं पहचानते भी हो कि
जब भी आएगी दुख की घड़ी
भाई ही तुम्हारा संगी होगा
जूझने के गुर सिखाओ उस भाई को ।

अब क्या –क्या कहूँ तुमसे
पर जी होता है
कि एक टिमकना लगाऊँ तुम्हारे माथे पर
ताकि दुनिया-जहान की नजर ना लगे तुम्हें।

भाई तुम ईश्वर नहीं
भाई हो
भाई तुम पानी नहीं भाई हो
बल्कि कह सकती हूँ साफ-साफ
कि पिता कि कोई जगह नहीं रही
तुम्हारे आगे।

आभा बोधिसत्त्व

ज़मीन पर ही रहे आसमाँ के होते हुए / अख़्तर होश्यारपुरी

ज़मीन पर ही रहे आसमाँ के होते हुए
कहीं न घर से गए कारवाँ के होते हुए

मैं किस का नाम न लूँ और नाम लूँ किस का
हज़ारों फूल खिले थे ख़िज़ाँ के होते हुए

बदन कि जैसे हवाओं की ज़द में कोई चराग़
ये अपना हाल था इक मेहरबाँ के होते हुए

हमें ख़बर है कोई हम-सफ़र न था फिर भी
यक़ीं की मंज़िलें तय कीं गुमाँ के होते हुए

वो बे-नियाज़ हैं हम मुस्तक़िल कहीं न रूके
किसी के नक़्श-ए-क़दम आस्ताँ के होते हुए

हर इक रख़्त-ए-सफ़र को उठाए फिरता था
कोई मकीं न कहीं था मकाँ के होते हुए

ये सानेहा भी मिरे आँसुओं पे गुज़रा है
निगाह बोलती थी तर्जुमाँ के होते हुए

हिदायतों का है मोहताज नामा-बर की तरह
फ़क़ीह-ए-शहर तिलिस्म-ए-बयाँ के होते हुए

अजीब नूर से रिश्ता था नूर का अख़्तर
कई चराग़ जले कहकशाँ के होते हुए

अख़्तर होश्यारपुरी

हाइकु / कुँअर बेचैन

जल चढ़ाया
तो सूर्य ने लौटाए
घने बादल ।

तटों के पास
नौकाएं तो हैं,किन्तु
पाँव कहाँ हैं?

ज़मीन पर
बच्चों ने लिखा'घर'
रहे बेघर ।

रहता मौन
तो ऐ झरने तुझे
देखता कौन?

चिड़िया उड़ी
किन्तु मैं पींजरे में
वहीं का वहीं !

ओ रे कैक्टस
बहुत चुभ लिया
अब तो बस

आपका नाम
फिर उसके बाद
पूर्ण विराम!

कुँअर बेचैन

तुम भी बुला लेना मुझे / अपर्णा भटनागर

तुम भी बुला लेना मुझे
बस यूँ ही

हॉस्टल के सबसे पीछे वाले कमरे की वह चोर खिड़की
जहाँ अचानक आती थी मैट्रन
और पकड़ी जाती थी मैं बार-बार
हर बार खड़े रहते थे बाहर तुम
बहुत ज्यादा उग आती थी घास
कुछ ज्यादा गिरती थी ओस
जहाँ बादल का टुकड़ा रुका रहता था घंटों
बेतरतीब से बरसता था पानी
सांकल पर चढ़ा होता था इन्द्रधनुष फाल्गुनी
जहाँ नदी बह जाती थी मेरे पैरों से
और तुम पुल पर औचक थमे रहते थे
इन सबके बीच

आज चाहूँ, तुम बुला लो मुझे
निस्तब्ध क्षणों पर टिकी
हमारी पुरानी पहचान को
जो घर की खिड़की पर बैठी गौरैया को
आने देगी भीतर
और बहुत लड़ाइयों के बाद भी
रोशनदान पर रख देगी
तिनके नए
रंग भी तो तिनकों जैसे होते हैं
बुनते रहते हैं नीड़ प्रेम के

अपर्णा भटनागर

संग-दिल है वो तो क्यूँ उस का गिला मैंने किया / फ़राज़

संग-दिल है वो तो क्यूँ उस का गिला मैंने किया
जब के ख़ुद पत्थर को बुत, बुत को ख़ुदा मैंने किया

कैसे ना-मानूस लफ़्ज़ों की कहानी था वो शख़्स
उस को कितनी मुश्क़िलों से तर्जुमा मैंने किया

वो मेरी पहली मोहब्बत ,वो मेरी पहली शिकस्त
फिर तो पैमान-ए-वफ़ा सौ मर्तबा मैंने किया

हूँ सज़ा-वार-ए-सज़ा क्यूँ जब मुक़द्दर में मेरे
जो भी उस जान-ए-जहां ने लिख दिया, मैंने किया

वो ठहरता क्या के गुज़रा तक नहीं जिसके लिए
घर तो घर हर रास्ता आरास्ता मैंने किया

मुझ पे अपना जुर्म साबित हो ना हो लेकिन 'फ़राज़'
लोग कहते हैं के उस को बेवफ़ा मैंने किया

अहमद फ़राज़

मुझे ग़ुबार उड़ाता हुआ सवार लगा / ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

मुझे ग़ुबार उड़ाता हुआ सवार लगा
मिरा क़यास हवाओं को नागवार लगा

उछालने में तुझे कितने हाथ शामिल थे
किनारे बैठ के लहरों का कुछ शुमार लगा

वो बूढ़ा पेड़ जो था बर्ग ओ बार से महरूम
हम उस से लग के जो बैठे तो साया-दार लगा

उबूर दरिया को करता रहा मगर इक बार
हुए जो शल मिरे बाजू तो बे-कनार लगा

निगाह अर्ज़-ओ-समा में जो मैं ने दौड़ाई
खिंचा हुआ मुझे चारों तरफ़ हिसार लगा

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

याद यूँ होश गंवा बैठी है / अब्दुल्लाह 'जावेद'

याद यूँ होश गंवा बैठी है
जिस्म से जान जुदा बैठी है

राह तकना है अबस सो जाओ
धूप दीवार पे आ बैठी है

आशियाने का ख़ुदा ही हाफ़िज़
घात में तेज़ हवा बैठी है

दश्त-ए-गुल-चीं से मुरव्वत कैसी
शाख़ फूलों को गंवा बैठी है

कैसे आए किसी गुलशन में बहार
दस्त में आबला-पा बैठी है

शहर आसीब-ज़दा लगता है
कूचे कूचे में बला बैठी है

चार कमरों के मकाँ में अपने
इक पछल-पाई भी आ बैठी है

शाएरी पेट की ख़ातिर ‘जावेद’
बीच बाज़ार के आ बैठी है

अब्दुल्लाह 'जावेद'

विदेशिनी-4 / कुमार अनुपम

तुम्हारी स्मृतियों की ज़ेब्रा-क्रॉसिंग पर एक ओर रुका हूँ

आवाजाही बहुत है
यह दूरी भी बहुत दूरी है

लाल बत्ती होने तो दो
पार करूँगा यह सफ़र ।

कुमार अनुपम

कुछ बचा ले अभी आँसू मुझे रोने वाले / ‘खावर’ जीलानी

कुछ बचा ले अभी आँसू मुझे रोने वाले
सानहे और भी हैं रू-नुमा होने वाले

वक़्त के घाट उतर कर नहीं वापस लौटे
दाग़ मल्बूस मह ओ महर के धोने वाले

दाएम आबाद रहे दार-ए-फ़ना के बासी
फ़िक्र में रूह-ए-बक़ायाब सुमूने वाले

थथराती रहे अब ख़्वाह हमा-वक़्त ज़मीं
सो गए ख़ाक-ए-अबद ओढ़ के सोने वाले

जिस पे भी पाँव धरा मैं ने उसी नाव में
आए आसार नज़र ख़ुद को डुबोने वाले

अब लिए फिरता है क्या दामन सद-चाक अपना
क्या हुए अब वो तेरे सीने पिरोने वाले

जा निकलता है अचानक वहीं रास्ता मेरा
दर प-ए-पा हों जहाँ ख़ार चुभोने वाले

गर्द है हाथ में उन के मेरी किश्त-ए-ज़र-ख़ेज़
ख़ार-ओ-ख़स से जो अलावा नहीं बोने वाले

ये भी इक तुरफ़ा तमाशा है की हैं अँधियारे
रेशा-ए-शब में सितारों को पिरोने वाले

कर गए ख़ुश्क भरी झील तअस्सुफ़ के कँवल
सूख कर काँटा हुए रात भिगोने वाले

दे गया है हमें अहद-ए-मरासिम उस का
उस ख़ज़ाने को नहीं हम नहीं खोने वाले

‘खावर’ जीलानी

शिमला का तापमान / अजेय

( सामान्य से दस डिग्री ऊपर)
+1c

भीड़ कभी छितराती है
कभी इकट्ठी हो जाती है
तिकोने मैदान पर विभिन्न रंगों के चित्र उभरते हैं
एक दूसरे में घुलते हैं
स्पष्ट होते हैं
बिखर कर बदल जाते हैं
कभी नीली जीन्स की नदी-सी एक
दूर नगर निगम के दफ़्तर तक चली जाती है
पतली और पतली होती
जल-पक्षियों से, डूबते, उतराते हैं
उस पर रंग बिरंगी टी-शर्ट्स और टोपियाँ
धूप सीधी सर पर है एकदम कड़़क
और तापमान बढ़ा हुआ

+2c

बच्चे बड़े बड़े गुब्बारे ओढ़ रहे हैं
गोल लम्बूतरे
बड़ी-बड़ी गुलाबी कैंडीज़ में से झाँकता
एक मरियल काला बच्चा
मेरे पास आकर रोता है -
‘अंकल ले लो न, कोई भी नहीं ले रहा’’
उसकी आँखें प्रोफेशनल हैं
फिर भी भीतर कुछ काँप-सा जाता है
तापमान पहले से बढ़ गया है

+3c

प्लास्टिक का हेलीकॅाप्टर
रह-रह कर मेरे पास तक उड़ा चला आता है
लौट कर लड़खड़ाता लैन्ड करता है
रेलिंग पर बैठा बड़ा-सा बन्दर
दो लड़कियों की चुन्नी पकड़ता, मुँह बनाता, डराता है

लड़कियाँ
एक सुन्दर, गोरी, लाल-लाल गालों वाली
दूसरी साधारण, साँवली
प्रतिवाद नहीं करतीं
शर्म से केवल मुह छिपातीं, मुस्करातीं हैं
तापमान बढ़ता ही जा रहा है

+4c

इक्के-दुक्के घोड़े वाले ठक-ठक किनारे-किनारे दौड़ रहे हैं
घोड़े वालों की चप्पलों की चट-चट
घोड़े की टापों में घुल मिल रही है
दोनो हाँफ रहें हैं
गर्म हवा की किरचियाँ हैं
धूप की झमक है
दोनों की चुंधियाई आँखों में आँसू हैं
गाढ़े सनग्लास पहने सैलानी स्वर्ग में उड़ रहा है
बड़े से छतनार दरख़्त के नीचे
आई० जी० एम० सी० में इलाज करवाने आए देहाती मरीज़ सुस्ता रहे हैं
बेकार पड़े घोड़े भी निश्चिन्त, पसरे हैं
लेकिन घोड़े वाले परेशान, दाढ़ी खुजला रहे हैं
ग्राहक की प्रतीक्षा में उन की आँखे सूख गई हैं
एकदम सुर्ख और खाली
एक लकीर भर डोल रही है उनमें
यह लकीर घोड़े और घोड़े वाले में फर्क बताती है
तापमान कुछ और बढ़ गया है

+5c

उस बड़े बन्दर को दो युवक
(एक चंट / दूसरा साधारण ढीला-ढाला-सा)
चॅाकलेट खिला रहे हैं
वह बन्दर उनके साथ गुस्ताखी नहीं करता
वे लोग बातें कर रहे हैं खुसर-फुसर
युवक ‘पंजाबी’ में
बंदर ‘बंदारी’ में
क्या फर्क पड़ता है
‘दोस्ती’ की एक ही भाषा होती है
उनकी आपस में पट रही है / जोड़-तोड़ चल रहा है
तापमान तेज़ी से बढ़ रहा है

 +6c

हिजड़े और बहरूपिए मचक-मचक कर चल रहे हैं
उन के ढोली गले में रूमाल बाँधे
अदब से, झुक कर उन के पीछे जा रहे हैं
पान चबाते होंठों में लम्बी-लम्बी विदेशी सिग्रेटें दबाए
गाढ़े मेकअप व मंहगे इत्र से सराबोर
इन भांडों से बेहतर ज़िन्दगी और किसकी है ?
लंगड़ी बदसूरत भिखारिन भीख न देने वालों को गालियाँ देती है
उसके अनेक पेट हैं
और हर पेट में एक भूखा बच्चा
संभ्रांत-सा दिखने वाला एक अधेड़
काला लबादा ओढ़, तेल की कटोरी हाथ में लिए
फ्रेंडशिप बैंड वाली तिब्बती लड़की के बगल में बैठ गया है
उस की बूढ़ी माँ को फेफड़ों का केंसर है

गेयटी के सामने से एक महिला गुज़र गई है
उसके सफ़ेद हो रहे बाल मर्दाना ढंग से कटे हैं
कानों में बड़ी-बड़ी बालियाँ और गले में खूब चमकदार मनके
उसकी नज़रें एक निश्चित ऊँचाई पर स्थिर हैं
उसकी बिंदास चाल में
समूचे परिदृष्य को यथावत् छोड कहीं पहुँच जाने की आतुरता है
तापमान काफी बढ़ गया है

+7c

हनीमून जोड़े फोटो खिंचवाते हैं
कभी-कभी किसी-किसी का कैमरा
क्लिक नहीं करता
चाहे कितना भी उलट-पलट कर देखो
कभी-कभी कुछ जोड़े
बिल्कुल क्लिक नहीं करते
फिर भी वे साथ-साथ चलते हैं
लिफ्ट में, बारिश्ता, बालजीज़ में
जाखू से उतरते हैं एक दूसरे से चिमट कर
स्केंडल पर गलबहियाँ डाले
और रिज पर एक ही घोड़े पर
ठुम्मक-ठुम्मक
घोडे़ की छिली पीठ की परवाह किए बिना ...........
तापमान एकदम बढ़ गया है ।

+8c
  
गुस्ताख़ बंदर रेलिंग पर से गायब है
लड़कियों के पास पंजाबी युवक पहुँच गए हैं
चंट युवक सुंदर वाली से सटकर बैठ गया है
उसे यहाँ-वहाँ छू रहा है
लड़की शर्म से पिघल रही है
आँखें नीची किए हँसती जा रही है
उसके ओठ सिमट नहीं पा रहे हैं
दंत-पंक्तियाँ छिपाए नहीं छिप रही हैं

साँवली लड़की कभी कलाई की घड़ी देखती है
कभी चर्च की टूटी हुई घड़ी की सूईयों को
जो लटक कर साढ़े छह बजा रही हैं
साधारण युवक की आँखें मशोबरा के पार
कोहरे में छिप गई सफ़ेद चोटियों में कुछ तलाश रहीं हैं
वह बेचैन है मानो अभी कविता सुना देगा
तापमान बेहद बढ़ चुका है

+9c

कुछ पुलिस वाले
नियम तोड़ रहे एक घोड़े वाले को
बैंतों से ताड़-ताड़ पीटने लगे हैं
घोड़े वाले की पीठ पर लाल-नीले निशान पड़ गए हैं
गुस्सा पीए हुए उसके साथी उसे पिटते हुए देखते रह गए हैं
पुलिस वाले उसे घसीटते हुए ले जा रहे हैं
वह ज़िबह किए जा रहे सूअर की तरह गों-गों चिल्ला रहा है
गाँधी जी की सुनहरी पीठ शान्तिपूर्वक चमक रही है
इन्दिरा धूप और गुस्सा खा कर कलिया गई हैं
परमार चिनार के पत्तों में छिपे झेंप रहे हैं
तापमान भीतर से बढ़ने लगा है

+10c

मेरे बगल में स्टेट लाइब्रेरी ख़ामोश खडी है
साफ-सुथरी, मेरी सफ़ेद कॉलर जैसी
मेरी मनपसंद जगह !
वहाँ भीतर ठंडक होगी क्या ?
तापमान बर्दाश्त से बाहर हो गया है

11.05.2002

अजेय

घर / कुँअर बेचैन

घर
कि जैसे बाँसुरी का स्वर
दूर रह कर भी सुनाई दे।
बंद आँखों से दिखाई दे।

दो तटों के बीच
जैसे जल
छलछलाते हैं
विरह के पल

याद
जैसे नववधू, प्रिय के-
हाथ में कोमल कलाई दे।

कक्ष, आंगन, द्वार
नन्हीं छत
याद इन सबको
लिखेगी ख़त

आँख
अपने अश्रु से ज़्यादा
याद को अब क्या लिखाई दे।

कुँअर बेचैन

मेमने ने देखे जब गैया के आंसू / अशोक चक्रधर

(खेल में मग्न बच्चों को घर की सुध नहीं रहती)
 
माता पिता से मिला जब उसको प्रेम ना,
तो बाड़े से भाग लिया नन्हा सा मेमना।
बिना रुके बढ़ता गया, बढ़ता गया भू पर,
पहाड़ पर चढ़ता गया, चढ़ता गया ऊपर।

बहुत दूर जाके दिखा, उसे एक बछड़ा,
बछड़ा भी अकड़ गया, मेमना भी अकड़ा।
दोनों ने बनाए अपने चेहरे भयानक,
खड़े रहे काफी देर, और फिर अचानक—

पास आए, पास आए और पास आए,
इतने पास आए कि चेहरे पे सांस आए।
आंखों में देखा तो लगे मुस्कुराने,
फिर मिले तो ऐसे, जैसे दोस्त हों पुराने।

उछले कूदे नाचे दोनों, गाने गाए दिल के,
हरी-हरी घास चरी, दोनों ने मिल के।
बछड़ा बोला- मेरे साथ धक्कामुक्की खेलोगे?
मैं तुम्हें धकेलूंगा, तुम मुझे धकेलोगे।

कभी मेमना धकियाए, कभी बछड़ा धकेले,
सुबहा से शाम तलक. कई गेम खेले।
मेमने को तभी एक आवाज़ आई,
बछड़ा बोला— ये तो मेरी मैया रंभाई।

लेकिन कोई बात नहीं, अभी और खेलो,
मेरी बारी ख़त्म हुई, अपनी बारी ले लो।
सुध-बुध सी खोकर वे फिर से लगे खेलने,
दिन को ढंक दिया पूरा, संध्या की बेल ने।

पर दोनों अल्हड़ थे, चंचल अलबेले,
ख़ूब खेल खेले और ख़ूब देर खेले।
तभी वहां गैया आई बछड़े से बोली—
मालूम है तेरे लिए कितनी मैं रो ली।

दम मेरा निकल गया, जाने तू कहां है,
जंगल जंगल भटकी हूं, और तू यहां है!
क्या तूने, सुनी नहीं थी मेरी टेर?
बछड़ा बोला— खेलूंगा और थोड़ी देर!

मेमने ने देखे जब गैया के आंसू,
उसका मन हुआ एक पल को जिज्ञासू।
जैसे गैया रोती है ले लेकर सिसकी,
ऐसे ही रोती होगी, बकरी मां उसकी।

फिर तो जी उसने खेला कोई भी गेम ना,
जल्दी से घर को लौटा नन्हा सा मेमना।

अशोक चक्रधर

धरती के अनाम योद्धा / उज्जवला ज्योति तिग्गा

इतना तो तय है कि
सब कुछ के बावजूद
हम जिएँगे जंगली घास बनकर
पनपेंगे / खिलेंगे जंगली फूलों-सा
हर कहीं / सब ओर
मुर्झाने / सूख जाने / रौंदे जाने
कुचले जाने / मसले जाने पर भी
बार-बार,मचलती है कहीं
खिलते रहने और पनपने की
कोई ज़िद्दी-सी धुन
मन की अन्धेरी गहरी
गुफ़ाओं / कन्दराओं मे
बिछे रहेंगे / डटे रहेंगे
धरती के सीने पर
हरियाली की चादर बन
डटे रहेंगे सीमान्तों पर / युद्धभूमि पर
धरती के अनाम योद्धा बन
हम सभी समय के अन्तिम छोर तक

उज्जवला ज्योति तिग्गा

काँधों से ज़िंदगी को उतरने नहीं दिया / अमीर इमाम

काँधों से ज़िंदगी को उतरने नहीं दिया
उस मौत ने कभी मुझे मरने नहीं दिया

पूछा था आज मेरे तबस्सुम ने इक सवाल
कोई जवाब दीदा-ए-तर ने नहीं दिया

तुझ तक मैं अपने आप से हो कर गुज़र गया
रस्ता जो तेरी राह गुज़रने नहीं दिया

कितना अजीब मेरा बिखरना है दोस्तो
मैं ने कभी जो ख़ुद को बिखरने नहीं दिष

है इम्तिहान कौन सा सहरा-ए-ज़िंदगी
अब तक जो तेरे ख़ाक-बसर ने नहीं दिया

यारो ‘अमीर’ इमाम भी इक आफ़्ताब था
पर उस को तीरगी ने उभरने नहीं दिया

अमीर इमाम

Friday, April 11, 2014

शुरूआत / इला प्रसाद

जब भी सुबह शुरूआत हुई
अँधेरे में हुई
अँधेरे से उजाले तक पहुँची
फिर वापस अँधेरे में लौटकर
गुम हो गई
फिर थके-हारों पैरों को सहलाया
कतरा-कतरा साहस जुटाया
कदम बढ़ाए.....
कि एक और शुरूआत तो
करनी ही होगी
क्या पता इस बार
मेरे हिस्से का सूरज
मेरी पकड़ में आ जाय
अँधेरे का यह सफ़र
निर्णायक हो जाय

इला प्रसाद

मैं अपनी ज़ात में जब से सितारा होने लगा / अफ़ज़ल गौहर राव

मैं अपनी ज़ात में जब से सितारा होने लगा
फिर इक चराग़ से मेरा गुज़ारा होने लगा

मिरी चमक के नज़ारे को चाहिए कुछ और
मैं आइने पे कहाँ आश्कारा होने लगा

ये कैसी बर्फ़ से उस ने भिगो दिया है मुझे
पहाड़ जैसा मिरा जिस्म गारा होने लगा

ज़मीं से मैं ने अभी एड़ियाँ उठाई थीं
कि आसमान का मुझ को नज़ारा होने लगा

अजीब सूर-ए-सराफ़िल उस ने फूँक दिया
पहाड़ अपनी जगह पारा पारा होने लगा

मैं एक इश्क़ में नाकाम क्या हुआ ‘गौहर’
हर एक काम में मुझ को ख़सारा होने लगा

अफ़ज़ल गौहर राव

है मेरा नाम मुहम्मद सो मुझे आ के पकड़ / अनीस अंसारी

है मेरा नाम मुहम्मद सो मुझे आ के पकड़
ऐ अबू जहल! भले नाम को साजिश में रगड़

यह ज़मीं मेरी है, हिजरत मै करू किसके लिए?
ख़ुद ही गरदिश में है ऐ चर्ख़ तू इतना न अकड़

अपनी मसनद के बराबर तू मुझे बैठने दे
दोनों इक शाह के शहज़ादे हैं आपस में न लड़

जब ज़रूरत हो मेरा हदिया-ए-सर तश्त में है
मेरी दस्तार मगर गिर न पड़े ऐसे पकड़

एक फ़नकार की मिट्टी की हैं मूरत शक्लें
काबा-ओ-काशी हैं आईने, ख़ुदा से न झगड़

जब कि मुल्ज़िम को सफ़ाई की इजा्ज़त न मिले
कैसे इन्साफ़ हो, फिर कैसे रूकेगी गड़बड़

जो ज़मीनों पे हैं सरहद वह नही जहर-अगं ज़े
दिल में जो ज़ेर-ए-ज़मीं है वह धतूरे की है जड़

यह ज़मीं ख़ूब है इस को न बिगाड़े कोई
एक मुद्दत में 'अनीस' आई है कुछ बीजों में जड़

अनीस अंसारी

प्रश्न / गिरिराज शरण अग्रवाल

क्या मेरा
चोटी पर चढ़ना ज़रूरी है
जबकि मेरे टाँगें ही नहीं हैं ।

किसी से उधार ली हुई
कृत्रिम टाँगों को
अथवा
झूठ की बैसाखियों को लेकर
मैं तेनसिंह बनूँ
क्या यह ज़रूरी है !

इस विश्व के
अथाह और विस्तीर्ण
सागर के किनारे
नियति द्वारा छोड़ा हुआ मैं
तैरकर पार जाने की
क्यूँ करूँ व्यर्थ चेष्टा
हाथ ही नहीं हैं जबकि मेरे ।
एक नया द्वीप कोई
खोज लाऊँ
बढ़ूँ आगे
सत्यहीन गर्व के
झंझा में बहता हुआ ।

टूटी हुई नाव का
सहारा भी मिलता नहीं
फिर भी
वास्कोडिगामा के
यश का चाहक बनूँ मैं ?
क्या यह ज़रूरी है!
मन कहता है मुझसे-
'चरैवेति... चरैवेति.. चरैवेति'
बस, याद रख इस कर्म-मंत्र को,
तब-
अनुत्तरित नहीं रहेगा मन का
कोई भी प्रश्न ।

गिरिराज शरण अग्रवाल

जितना अधिक पचाया जिसने / अमित

जितना अधिक पचाया जिसने
उतनी ही छोटी डकार है
बस इतना सा समाचार है

निर्धन देश धनी रखवाले
भाई चाचा बीवी साले
सबने मिलकर डाके डाले
शेष बचा सो राम हवाले
फिर भी साँस ले रहा अब तक
कोई दैवी चमत्कार है
बस इतना सा समाचार है

चादर कितनी फटी पुरानी
पैबन्दों में खींचा-तानी
लाठी की चलती मनमानी
हैं तटस्थ सब ज्ञानी-ध्यानी
जितना ऊँचा घूर, दूर तक
उतनी मुर्ग़े की पुकार है
बस इतना सा समाचार है

पढ़े लिखे सब फेल हो गये
कोल्हू के से बैल हो गये
चमचा, मक्खन तेल हो गये
समीकरण बेमेल हो गये
तिकड़म की कमन्द पर चढ़कर
सिद्ध-जुआरी किला-पार है
बस इतना सा समाचार है

जन्तर-मन्तर टोटका टोना
बाँधा घर का कोना-कोना
सोने के बिस्तर पर सोना
जेल-कचेहरी से क्या होना
करे अदालत जब तक निर्णय
धन-कुनबा सब सिन्धु-पार है
बस इतना सा समाचार है

मन को ढाढस लाख बधाऊँ
चमकीले सपने दिखलाऊँ
परी देश की कथा सुनाऊँ
घिसी वीर-गाथायें गाऊँ
किस खम्भे पर करूँ भरोसा
सब पर दीमक की कतार है
बस इतना सा समाचार है

अमिताभ त्रिपाठी ‘अमित’

लम्स-ए-आख़िरी / अख्तर पयामी

न रोओ जब्र का आदी हूँ मुझे पे रहम करो
तुम्हें क़सम मेरी वारफ़्ता ज़िंदगी की क़सम
न रोओ बाल बिखेरो न तुम ख़ुदा के लिए
अँधेरी रात में जुगनू की रौशनी की क़सम

मैं कह रहा हूँ न रोओ कि मुझ को होश नहीं
यही तो ख़ौफ़ है आँसू मुझे बहा देंगे
मैं जानता हूँ की ये सैल भी शरारे हैं
मेरी हयात की हर आरज़ू जला देंगे

न इतना रोओ ये क़िंदील बुझ न जाए कहीं
इस ख़ुद अपना लुहू दे के मैं जलाता हूँ
जो हम ने मिल के उठाए थे वो महल बैठे
अब अपने हाथ से मिट्टी का घर बनाता हूँ

तुम्हारे वास्ते शबनम निचोड़ सकता हूँ
ज़र-ओ-जवाहर-ए-गौहर कहाँ से लाऊँ मैं
तुम्हारे हुस्न को अशआर में सजा दूँगा
तुम्हारे वास्ते ज़ेवर कहाँ से लाऊँ मैं

हसीं-मेज़ सुबुक-जाम क़ीमती-फ़ानूस
मुझे ये शक है मैं कुछ भी तो दे नहीं सकता
गुलाम ओर ये शाएर का जज़्बा-ए-आज़ाद
मैं अपने सर पे ये एहसान ले नहीं सकता

मुझे यक़ीन है तुम मुझ को माफ़ कर दोगी
कि हम ने साथ जलाए थे ज़िंदगी के कँवल
अब इस को क्या करूँ दुश्मन की जीत हो जाए
हमारे सर पे बरस जाए यास का बादल

न रोओ देखो मेरी साँस थरथराती है
क़रीब आओ मैं आँसू तो पोछ कर देखूँ
सुनो तो सोई हुई ज़िंदगी भी चीख़ उट्ठे
क़रीब आओ वही बात कान में कह दूँ

न रू मेरी सियह-बख़्तियों पे मत रोओ
तुम्हें क़सम मेरी आशुफ़्ता-ख़ातिरी की क़सम
मिटा दो आरिज़-ए-ताबाँ के बद-नुमा धब्बे
तुम्हारे होंटों पे उस लम्स-ए-आख़िरी की क़सम

अख्तर पयामी

वफ़ाएँ कर के जफ़ाओं का ग़म उठाए जा / एहसान दानिश

वफ़ाएँ कर के जफ़ाओं का ग़म उठाए जा
इसी तरह से ज़माने को आज़माए जा

किसी में अपनी सिफ़त के सिवा कमाल नहीं
जिधर इशारा-ए-फ़ितरत हो सर झुकाए जा

वो लौ रबाब से निकली धुआँ उठा दिल से
वफ़ा का राग इसी धुन में गुनगुनाए जा

नज़र के साथ मोहब्बत बदल नहीं सकती
नज़र बदल के मोहब्बत को आज़माए जा

ख़ुदी-ए-इश्क़ ने जिस दिन से खोल दीं आँखें
है आँसुओं का तक़ाज़ा कि मुस्कुराए जा

नहीं है ग़म तो मोहब्बत की तर्बियत नाक़िस
हवादिस आएँ तो नरमी से पेश आए जा

थी इब्तिदा में ये तादीब-ए-मुफ़लिसी मुझ को
ग़ुलाम रह के गुलामी पे मुस्कुराए जा

बदल न राह-ए-ख़िरद के फ़रेब में आ कर
जुनूँ के नक़्श-ए-क़दम पर क़दम बढ़ाए जा

उम्मीद ओ यास में जीनाम है इश्क़ का मक़्सूद
इसी मक़ाम-ए-मुक़द्दस पे तिलमिलाए जा

चमन में फ़ुर्सत ओ तस्कीं है मौत का पैग़ाम
सुकूँ पंसद न कर आशियाँ बनाए जा

यही है लुत्फ़-ए-मोहब्बत यही है कैफ़-ए-हयात
हक़ीक़तों की बिना पर फ़रेब खाए जा

वफ़ा का ख़्वाब है ‘एहसान’ ख़्वाब-ए-बे-ताबीर
वफ़ाएँ कर के मुक़द्दर को आज़माए जा

एहसान दानिश