क्यों आँखें बंद कर के रस्ते में चल रहा हूँ
क्या मैं भी रफ्ता रफ्ता पत्थर में ढल रहा हूँ
चारों तरफ हैं शोले हमसाये जल रहे हैं
मैं घर में बैठा बैठा बस हाथ मल रहा हूँ
मेरे धुएं से मेरी हर साँस घुट रही है
मैं राह का दिया हूँ और घर में जल रहा हूँ
आँखों पे छा गया है जादू ही कोई शायद
पलकें झपक रहा हूँ , मंज़र बदल रहा हूँ
तब्दीलियों का नश्शा मुझ पर चढ़ा हुआ है
कपड़े बदल रहा हूँ , चेहरा बदल रहा हूँ
इस फैसले से खुश हैं , अफ़राद घर के सारे
अपनी खुशी से कब मैं घर से निकल रहा हूँ
इन पत्थरों पे चलना आ जायेगा मुझे भी
ठोकर तो खा रहा हूँ , लेकिन संभल रहा हूँ
काँटों पे जब चलूँगा , रफ़्तार तेज़ होगी
फूलों भरी रविश है,बच बच के चल रहा हूँ
चश्मे की तरह 'आलम' अशआर फूटते हैं
कोहे-गिरां की सूरत , मैं भी उबल रहा हूँ
Saturday, December 6, 2014
क्यों आँखें बंद कर के रस्ते में चल रहा हूँ / आलम खुर्शीद
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