जलता नहीं और जल रहा हूँ
किस आग में मैं पिघल रहा हूँ
मफ़लूज हैं हाथ-पाँव मेरे
फिर ज़हन में क्यूँ चल रहा हूँ
राई का बना के एक पर्वत
अब इस पे ख़ुद ही फिसल रहा हूँ
किस हाथ से हाथ मैं मिलाऊँ
अब अपने ही हाथ मल रहा हूँ
क्यों आईना बार बार देखूँ
मैं आज नहीं जो कल रहा हूँ
अब कौन सा दर रहा है बाक़ी
उस दर से क्यों मैं निकल रहा हूँ
क़दमों के तले तो कुछ नहीं है
किस चीज़ को मैं कुचल रहा हूँ
अब कोई नहीं रहा सहारा
मैं आज से फिर सम्भल रहा हूँ
ये बर्फ़ हटाओ मेरे सर से
मैं आज कुछ और जल रहा हूँ
Thursday, December 11, 2014
जलता नहीं और जल रहा हूँ / खलीलुर्रहमान आज़मी
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