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Wednesday, December 10, 2014

कोई पूछता / अनुज कुमार

चावल,
बोरे में बचा था कुछ चावल,
चावल -- जिससे मिटाते हैं भूख,
चावल बस एक समय का ।

इन्तज़ार,
रात का इन्तज़ार,
स्याह होने का इन्तज़ार,
इन्तज़ार-तारों का नहीं, सिगरेट के टुकड़ों का ।

उम्र,
मोमबत्ती-सी पिघलती उम्र,
उम्र के जाने के साथ जाती नौकरियाँ,
उम्र की क़ैद में सिमटी नौकरियाँ ।

उम्मीदें,
कूड़े के हवाले हैं उम्मीदें
उम्मीदें -- जिन पर खड़ा है आदमी,
उम्मीदें -- जिन पर लगे हैं संशय के जाले ।

सवाल,
सब पूछते सवाल दर सवाल,
सवाल -- जिसके लच्छे छोड़ चटखारे लेते आदमी,
सवाल -- पढ़ाई ख़ूब, नौकरी छोटी-मोटी ?

पूछता,
मुझसे कोई तो पूछता --
पूछता -- कैसा लगता है
अर्जियों के जवाब में बन्द, सपनों का इन्तज़ार ?
पूछता -- कैसे कर सकता है
सपनों से थका आदमी किसी भी ग़ुलामी का इन्तज़ार ?
पूछता -- मुझ युवा पर दंभ भर्ती सरकार
कैसे कर सकती है योग्यताओं को तार-तार ?
कैसे दे सकती है क्रूर दिलासों का व्यापार ?
कि कोई तो जाए, गुहार दे, चीख़े-चिल्लाए,
कि हमारे वोट पर ऐंठती सरकार !
टूट-फूट गए हैं हम, अब और न होता इन्तज़ार ।

अनुज कुमार

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