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Monday, December 8, 2014

चाह स्वर्णिम भोर की / आनंद कुमार ‘गौरव’

चाह स्वर्णिम भोर की
आकार बौने जागरण के

प्रावधानों की उलझती
भीड़ जीवन हो गई है

 
कृत्य काले दृश्य उजले
देह भस्मीली दिशा है
नृत्य बेड़ी में लपेटे
घूमती फिरती ऋचा है

पीर दूजों की चुराती
मानवी रुत सो गई है

 
नींद ओढ़े बिजलियाँ हैं
रतजगे पर तितलियाँ हैं
अब स्वयँ को पूजने की
आरती हैं तालियाँ हैं

जो धरा पूजे सजाए
वह जवानी खो गई है

 
हैं पराजित खोज सारी
गीत स्वर मृदु सोच सारी
अब सुगंधों से विमुख हैं
मूर्छित हैं फूल क्यारी

सद सुधा आवाहना
बेहद ज़रूरी हो गई है
आनंद कुमार ‘गौरव’

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