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Monday, December 15, 2014

लुत्फ़ हम को आता है अब फ़रेब खाने में / आलम खुर्शीद

लुत्फ़ हम को आता है अब फ़रेब खाने में
आज़माए लोगों को रोज़ आज़माने में

दो घड़ी के साथी को हमसफ़र समझते हैं
किस क़दर पुराने हैं , हम नए ज़माने में

एहतियात रखने की कोई हद भी होती है
भेद हम ने खोले हैं , भेद को छुपाने में

तेरे पास आने में आधी उम्र गुजरी है
आधी उम्र गुज़रेगी तुझ से दूर जाने में

ज़िन्दगी तमाशा है और इस तमाशे में
खेल हम बिगाड़ेंगे , खेल को बनाने में

कारवां को उनका भी कुछ ख्याल आता है
जो सफ़र में पिछड़े हैं , रास्ता बनाने में

आलम खुर्शीद

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