वो कभी धूप कभी छाँव लगे ।
मुझे क्या-क्या न मेरा गाँव लगे ।
किसी पीपल के तले जा बैठे
अब भी अपना जो कोई दाँव लगे ।
एक रोटी के त'अक्कुब[1] में चला हूँ इतना
की मेरा पाँव किसी और ही का पाँव लगे ।
रोटि-रोज़ी की तलब जिसको कुचल देती है
उसकी ललकार भी एक सहमी हुई म्याँव लगे ।
जैसे देहात में लू लगती है चरवाहों को
बम्बई में यूँ ही तारों की हँसी छाँव लगे ।
Friday, December 12, 2014
वो कभी धूप कभी छाँव लगे / कैफ़ी आज़मी
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