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Tuesday, December 9, 2014

कितने एकान्त ! / आशुतोष दुबे

हमारी बेख़बरी में
हमारे एकान्त इतने क़रीब आ गए
कि हम ज़रा-ज़रा एक-दूसरे के एकान्त में भी आने-जाने लगे
इस तरह हमने अपने सुनसान को डरावना हो जाने से रोका
निपटता की बेचारगी से ख़ुद को बचाया
और नितान्त के भव्य स्थापत्य को दूर से सलाम किया
दोनों के एकान्त की अलबत्ता हिफाज़त की दोनों ने
उनके बीच की दीवार घुलती रही धीरे-धीरे
फिर एक साझा घर हो गया एकान्त का
उसकी खिड़कियों से दुनिया का एकान्त दिखता था
हम टहलते हुए उस तरफ भी निकल जाते हैं अक्सर
ताज्जुब से देखते हुए
कितने एकान्तों की दीवारें विसर्जित होती हैं लगातार
तब कहीं संसार का एकान्त होता है

आशुतोष दुबे

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