Pages

Sunday, December 7, 2014

काहे बुझी सोच कै बाती / उमेश चौहान

काहे चेहरा है मुरझावा,
काहे बुझी सोच कै बाती?

काहे सूखैं ताल-तलैया?
काहे सूखै नदवा नाला?
काहे सूखैं आम-निबहरी?
काहे सूखै भुइंया झाड़ा?
काहे सूखै बुढ़वा बरगदु?
काहे तुम धरती का चूसेउ
मोटे-मोटे पाइप डारि कै?
काहे यहिका हिया सुखायो?
अब काहे तुम पीटौ छाती?

काहे चेहरा है मुरझावा,
काहे बुझी सोच कै बाती?

काहे गायब भईं गौरैया?
काहे गायब हरहा-गोरू?
काहे गीध-चील भे गायब?
काहे गायब जल ते मछरी?
काहे गायब भईं बटेरैं?
काहे रोवैं मोर-पपीहा?
काहे सिसकैं कोयल-मैना?
काहे जहरु भरेउ कन-कन माँ,
फारेउ धरती कै बरसाती?

काहे चेहरा है मुरझावा,
काहे बुझी सोच कै बाती?

काहे जोति लेहेउ गलियारा?
काहे माली बागु उजारा?
काहे इरखा माँ डूबे सब
काहे म्याड़ैं खायं ख्यात का?
काहे ग्वाबरु-कंडा गायब?
काहे पांसि नहीं झौआ भरि?
काहे अन्नु रसायन बोरे?
काहे होरी के रंग फीके?
नहीं देवारी हमैं सोहाती?

काहे चेहरा है मुरझावा,
काहे बुझी सोच कै बाती?

उमेश चौहान

0 comments :

Post a Comment