दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभानेवाला
वही अन्दाज़ है ज़ालिम [1]का ज़मानेवाला
अब उसे लोग समझते हैं गिरफ़्तार मेरा
सख़्त नादिम[2] है मुझे दाम[3] में लानेवाला
सुबह-दम छोड़ गया निक़हते-गुल[4] की सूरत
रात को ग़ुंचा-ए-दिल[5] में सिमट आने वाला
क्या कहें कितने मरासिम[6] थे हमारे उससे
वो जो इक शख़्स है मुँह फेर के जानेवाला
तेरे होते हुए आ जाती थी सारी दुनिया
आज तन्हा हूँ तो कोई नहीं आनेवाला
मुंतज़िर[7] किसका हूँ टूटी हुई दहलीज़ पे मैं
कौन आयेगा यहाँ कौन है आनेवाला
मैंने देखा है बहारों[8] में चमन को जलते
है कोई ख़्वाब की ताबीर[9] बतानेवाला
क्या ख़बर थी जो मेरी जान में घुला है इतना
है वही मुझ को सर-ए-दार[10] भी लाने वाला
तुम तक़ल्लुफ़[11] को भी इख़लास[12] समझते हो "फ़राज़"
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलानेवाला
Monday, November 3, 2014
दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभाने वाला / फ़राज़
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