एक प्रवासी
भँवरा है
रंग-गंध का गाँव है
फूलों को
वह भरमाता है
मीठी-मीठे
गीत सुना कर
और हृदय में
बस जाता है
मादक-मधु
मकरंद चुरा कर
निष्ठुर,
सुधि की धूप बन गया
विरह-गीत की छाँव है
बीत रही जो
फूलों पर वह
देख-देख कलियां
चौकन्ना
सहज नहीं है
उसका मिल
बैठा
अंतर में जो बन्ना
पता चला
वह बहुत गहन है
उम्र कागज़ी नाव है
Tuesday, March 4, 2014
अन्तर में जो बन्ना / अवनीश सिंह चौहान
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